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________________ % भगवतीने वेदना द्विविधा शाताशातरूपा भवतीति 'सायावेयगा असायावेयगा' शातावेदका अशातावेदकाश्च भवन्तीति (१५)। वेदद्वारे-'वेयो दुविहो वि' वेदो द्विविधोऽपि 'इत्थीवेयगा वि पुरिसवेरगा वि स्त्री वेदका अपि पुरुषवेदका अपि णो नपुंसग. वेयगा' नो नपुंसकवेदकाः, असंख्यातवर्षायुषोहि नपुंसकवेदका न भवन्त्ये. वेति (१६)। 'ठिई जहन्नेणं साइरेगा पुच्चकोडी' स्थितिर्जघन्येन सातिरेका पूर्वकोटिर, तथा-'उकोसेणं तिन्नि पलिभोवमाई' उत्कर्षेण श्रीणि पल्योपमानि (१७)। 'अन्झवसाणा पसत्था वि अपसत्था वि' अध्यवसाया:-विचारा प्रशस्तभावयुक्ता-अपशस्ता अपशस्तभावनायुक्ता अपि (१८)। 'अणुबंधो जहेव ठिई' अनुबन्धो यथा स्थितिः अनुबन्धः, सातिरेकपूर्वकोटिरूपः, उत्कर्षेण त्रिपल्योपमात्मक इति (१९)। 'कायसंवेहो भवादेसेणं दो भवग्गहणाई' कायसंवेधी भवादेशेन-भवप्रकारेण द्वे भवग्रहणे, एको भवः तिरश्चः, द्वितीयधा सुरकुमारस्यैवं भवद्वयमेव, कालादेशेन-कालपकारेण कालापेक्षयेत्यर्थः पुरुष वेद ये दो ही वेद होते हैं। यहां नपुंसक वेद नहीं होता है। क्योंकि असंख्यात वर्ष की आयुवाले जीव नपुंसक वेदवाले नहीं होते है। 'ठिई जहन्नेणं साइरेगा पुत्वकोडी' स्थिति जघन्य से कुछ अधिक एक पूर्व कोटि की होती है । तथा-'उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई उत्कृष्ट से तीन पल्योपम की होती है। 'अज्झवसाणा पसस्था वि अपसत्यादि अध्यवसाय इनके प्रशस्त भी होते हैं और अप्रशस्त भी होते हैं। 'अणुबंधो जहेव ठिई' स्थिति के जैसा अनुबन्ध सातिरेक पूर्वकोटि रूप होता है, और उत्कृष्ट से वह तीन पल्योपम का होता है 'कायसंवेहो भवादेसेणं दो भवरगहणाई' काय संबे यहां दो भवों को ग्रहण करने रूप होता है-इसमें एक भव तिर्यश्च का और दूसरा असुरकुमार का 'वेयो दुविहो वि' ते माने सीव मर ५३५३४ मे मे वह डाय छे. मलियां નપુંસકવેદ હેત નથી. કેમકે-અસંખ્યાત વર્ષની આયુષ્યવાળા છે નપુંસક वेवास ता नथी. 'ठिई जहण्णेणं साइरेगा पुषकोडी' स्थिति न्यथी पधारे में पूटिनी डाय छे. तथा उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई' . थी तमान स्थिति १ ५६या५मनी डाय छ ‘अज्झवसाणा पसत्था वि अप सस्था वि' तेम्मान १६५वसान प्रशत ५४ डाय छ भने अप्रशस्त पाय छे. 'अणुबधे। जहेव ठिई' स्थितिना प्रभारअनुम' ५५५ साति२४ Aale ३५ सय छे. अने 3थी ते अपत्यापभनी डाय छ. 'कायसवेहो भवा सेणे दो भव्यगण'ई' मडिया यसवेध मपाइशथी ये लवाने मेट से ભવ તીય ચે અને બીજો ભવ અસુરકુમારોનો એ રીતે બે ભને ગ્રહણ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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