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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श०२४ ३.१ सू.४ जघन्यस्थितिकनैरयिकाणां नि० ४०५ कियकालस्थितिकेषु 'उज्जेन्जा' उत्पद्येते ति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा !' हे गौतम ! 'जहन्नेणं पलिश्रोत्रमस्स' जघन्येन पल्योपमस्य 'असंखेज्जइनागट्टिइ. एमु' असंख्येयभागस्थिति केषु नारकेषु उत्पद्येत तथा 'उकोसेण वि' उत्कर्षेणापि 'पलिओवमस्स' पल्योपमस्य 'असंखेज्जइभागट्टिइएसु' असंख्येयभागस्थिति केषुनारकेषु ‘उज्जेज्ना' उत्पद्यत इति । ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं.' ते-उत्कपकालस्थितिकपर्याप्तासंज्ञिपश्चेन्द्रियतिर्यग्मोनिका उत्कृष्टकालस्थितिकरत्नपमापृथिवी नैरयिकेषु उत्पत्तियोग्याः खलु भदन्त ! जीवा एकस्मिन् समये कियासं. ख्यका उत्पद्यन्ते, इति उत्पत्तिविषयकः प्रश्नः । उत्तरमाह- सेसं जहा सत्तमगमए' कितने काल की स्थिति वाले नैरयिकों में उत्पन्न होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम !' 'जहन्नेणं पलिओवमस्स असं. खेजहभागट्टिइएलु' ऐसा वह जीव जघन्य से पल्योपम के असंख्यातवें भाग प्रमाण स्थितिवाले नारको में उत्पन्न होताहै । तथा 'उक्कोसेण वि' उत्कृष्ट से भी 'पलिओवमस्त असंखेज्जहभागटिइएसु' पल्योपम के असंख्यातवे भाग प्रमाण स्थितिवाले नारकों में उत्पन्न होता है। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'ते गं भंते ! जीवा एगसमएणं.' हे भदन्त ! उत्कृष्ट काल की स्थितिवाले वे पर्याप्त असंज्ञी पश्चेन्द्रियतिर्यश्च जो कि उत्कृष्ट काल की स्थितिवाले रत्नप्रभा पृथिवी के नैरयिकों में उत्पत्ति के योग्य हैं एक समय में वहां कितने उत्पन्न होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु उन गौतम से कहते हैं-'सेसं जहा सत्तम Hi 64न थाय छ १ मा प्रश्नाला उत्तरमा प्रभु -'गोयमा ।' उ गौतम ! 'जहण्णेणं पलिओवमस्त असंखेज्जइभागढिइएसु' मेवे ते ७१ જઘન્યથી પોપમના અસંખ્યતમાં ભાગ પ્રમાણની સ્થિતિવાળા નારકમાં पन्न थ.य छ, तथा उकोसेणं वि' Brgetथी ५ 'पलिओवमस्स असंखेज्जइ. भागदिइएसु' पक्ष्योभना असभ्यातमा सामान स्थितिया नामा उत्पन्न थाय छे. वे गौतभस्वामी प्रसने से पूछे छ है-ते णं भते ! जीवा एगसमएणं०' मावन अge अपनी स्थितिवा५यति असशी ५ये. ન્દ્રિય તિર્યંચ કે જે ઉત્કૃષ્ટ કાળની સ્થિતિવાળા રત્નપ્રભા પૃથ્વીના નિરયિ. કેમાં ઉત્પન્ન થવાને ગ્ય છે, તેઓ એક સમયમાં ત્યાં કેટલા ઉત્પન્ન થાય छ १ मा प्रश्न उत्तरमा प्रभु छ है-'सेसं जहा सत्तमगमए' 3 गौतम! શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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