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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२४ उ.१ सू०४ जघन्यस्थितिकनैरयिकाणां नि० ४०३ इए' जघन्यकालस्थितिकरत्नप्रभा थवीसंबन्धिनारकोऽभवत्, 'पुणरवि उक्कोसकालहिइयपज्जतअसन्निपचिंदियतिरिकाखजोगिए' पुनरपि नरकान्नि: सृत्य तदनन्तरं पुनरपि उत्कृष्ट कालस्थिति कपर्याप्तासंक्षिपञ्चेन्द्रियतियग्योनिको जातः, 'त्ति' इति एवं प्रकारेण 'केवइयं काल सेवेज्जा' कियत्कालपर्यन्तं तिर्यग्गति नारक गतिं च सेवेन स पर्याप्तासंक्षिपञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः तथा-'केवइयं कालं गहरागई करेजा कियत्काळपर्यन्तं गत्यागती-गमनागमने च कुर्यादिति प्रश्नः । भगवानाह-'गोयमा' हे गौतम ! 'भवादेसेणं' भवादेशेन-भवप्रकारेण 'दो भवग्गहणाई' द्वे भवग्रहणे भवद्वयग्रहणम् एकत्रासंज्ञीपश्चेन्द्रियस्ततो नारकस्तदन्तरमवश्यं संज्ञित्वमेव लभते नत्वसंज्ञित्वमित्याशनेन कथितम् 'दो भवग्गनकालट्ठिय रयण पभा पुढविनेरहए' जघन्यस्थितिवाला रत्नप्रभा पृथिवी का नैरयिक हुभा, 'पुणरवि उक्कोसकालहिहए पज्जत्त असन्नि पंचिंदियतिरिक्खजोणिए' और फिर वह नरक से निकलकर-उस्कृष्ट काल की की स्थितिवाला पर्याप्त असंज्ञी पञ्चेन्द्रियतिर्यश्च हुआ, तो इस प्रकार से वह 'केवइयं काल सेवेजा जाव करेज्जा' कितने काल तक उस तिर्यश्वगति और नरक गति का सेवन करता है और कितने कालतक इस प्रकार से वह गमनागन करता रहता है ? तो इसके उत्तर में प्रभु उन गौतम से कहते हैं-'गोयमा 'हे गौतम! 'भवादेसेणं दो भवग्गहणाई' भव की अपेक्षा वह दो भवों के ग्रहण तक-एक भव उसका असंज्ञी पश्चेन्द्रिय का होता है और दूसरा भव उसका नारक का होता है इसके बाद वह नियम से संज्ञी हो जाता है, इस प्रकार से दो भवों न्द्रिय तिय य थाय अन ते पछी भरीव 'जहन्नकालदिइयरयणप्पभा पुढवी नेरइए' ४-५ स्थितिवाणी २नमा पृथ्वीना नरथि: थाय, 'पुणरवि उक्कोस. कालदिइए पज्जत्त असन्निपचिंदियतिरिक्खजोणिए' भने पाछे। १२४थी नीजीने ઉત્કૃષ્ટ કાળની સ્થિતિવાળા પર્યાપ્ત અસંસી પચેન્દ્રિય તિર્યંચ થાય તે આ शत ते 'केव इयं कालं सेवेजा जाव करेज्जा' ट। १ सुधा से तिय"य ગતિ અને નરકગતિનું સેવન કરે છે. અને કેટલા કાળ સુધી આ પ્રકારે તે ગામના ગમન-અવર જવર કરતો રહે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ गौतम स्वाभान ४ छ -'गायमा ! 3 गौतम ! भवादेसेणं दो भवग्गहणाई। ભવની અપેક્ષાએ તે બે ભાના ગ્રહણ કરતાં સુધી એટલે કે તેને એક ભવ અસંજ્ઞી પંચેન્દ્રિય હોય છે. અને તેને બીજો ભવ નાશ્કનો હોય છે. તે પછી નિયમથી તે સંજ્ઞી થઈ જાય છે, અસંશી રહેતું નથી. આ રીતે બે શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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