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________________ १८६ भगवतीस्त्रे विषयकाः पश्चापि विकल्या ज्ञातव्याः । 'पुढवीकाइया तहेव पच्छिल्लएहि दोहि' पृथिवीकायिकास्तथैव-द्वदादशसूत्रपश्चिमाभ्यां द्वाभ्यां चरमाभ्यां द्वाभ्यां विकस्पाभ्यां समर्जिताः चरमौ च विकल्पो, चतुरशीतिकैः समर्जिताः४, चतुरशीतिकैश्च नो चतुरशीस्या च समर्जिताः५ इत्याकारको । द्वादशकसूत्रापेक्षया यद्वैलक्षण्यं तदर्शयति-'नवरं' इत्यादि, 'नवरं अभिलाको चुलसीइओ' नवरम्-केवलम् अभिलापः चतुरशीतिकः, तत्र द्वादशकम्त्रे द्वादशकेन समर्जिता इत्युक्तम्, अत्रतु चतुरशीतिकैरिति वक्तव्यमेतावानेव भेदः। एवं जाव वणस्सइकाइया' एवं यावत् वनस्पतिकायिकाः एवम् पृथिवीकायिकानां यथा चतुर्थपञ्चमविकल्पौ कथितौ तथा ही असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक के भवनपतियों के चतुरशीति समर्जित आदि पांच विकल्पों के विषय में भी जानना चाहिये 'पुढवीकाइया तहेव पच्छिल्लरहिंदोहि' पृथिवीकायिक जीवों के द्वादशक सूत्र के जैसे पीछे के दो विकल्प चतुर्थ और पंचम अनेक चौरासी की संख्या में उत्पन्न होते हैं। और अनेक चौरासी की संख्या में उत्पन्न होते हैं एवं एक नो चौरासी की संख्या में उत्पन्न होते हैं-ऐसे ये दो ही विकल्प होते हैं ऐसा जानना चाहिये अब द्वादशक सूत्र की अपेक्षा से जो यहां भिन्नता है उसे भूत्रकार 'नवरं' इत्यादि पद द्वारा प्रकट करते हैं-इससे उन्होंने यह कहा है कि जिस प्रकार से द्वादशक सूत्र में 'द्वादशकेन समर्जिताः' ऐसा पद कहा गया है इसी प्रकार से यहां पर 'चतुरशीतिक' ऐसा पद लगाकर अभिलाप कहना चाहिये 'एवं जाव वणस्सइकाइया' जिस प्रकार से पृथिवीकायिक जीवों के चतुर्थ एवं जाव थणियकुमारा' नानी भ. मसुरमाथी ने स्तनितभार સુધીના ભવનપતિએને ચોર્યાશી સમજીત વિગેરે પાંચ વિકલ્પથી યુક્ત समनवा. 'पुढवीकाइया तहेव पच्छिल्लएहि दोहि' पृथ्वीयि वान मार સમજીત સૂત્રની માફક પાછલા બે વિક એટલે ચોથે અને પાંચમી એ બે વિક એટલે કે–અનેક ચોરાસીની સંખ્યામાં ઉત્પન્ન થાય છે, ૪ તથા અનેક ચર્યાશીની સંખ્યામાં અને એક ને ચેર્યાશીની સંખ્યામાં ઉત્પન થાય છે. ૫ આ પ્રકારના આ બે વિકલ્પ થાય છે. તેમ સમજવું. હવે બાર સમજીત સૂત્રની અપેક્ષાએ આ કથનમાં જે જુદાપણું છે, तसूत्र४१२ 'नवरं' विगैरे ५६ द्वा२१ मताव छ.-॥ ५४थी सूत्रारे में सताव्यु छ-२ शत पा२ समत सूत्रमा 'द्वादशकेन समर्जिताः' से प्रमाणेनु ५६ पुछे, मे०४ शत मलियां 'चतुरशीतिकैः' में प्रमाणे यह मनावीर मलिता५ ४३३। ‘एवं जाव वणस्सइकाइया' २ रीते पृथ्वीय શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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