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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२० उ०१० सू०१ जी० सोपक्रमनिरुपक्रमायुष्यत्वम् ११७ 'एवं जाव थणियकुमारा' एवं यावत् स्तनितकुमाराः, एवमेव नारकवदेव स्तनित. कुमारपर्यन्तजीवा नो आत्मोपक्रमेण नो परोपक्रमेण वा उद्वर्तन्ते किन्तु निरुपक्रमेणैव असुरकुमारादारभ्य स्तनितकुमारान्तानामुद्वर्तना भवतीति भावः । 'पुढवीकाइया जाव मणुस्सा निमु उववद्वृति' पृथिवीकायिका यावत् मनुष्याः त्रिष्वपि उद्वर्तन्ते एकेन्द्रियद्वीन्द्रियत्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रियपश्चेन्द्रियतिर्यङ्मनुष्याः इमे सर्वेऽपि आत्मोपक्रमेण परोपक्रमेण निरुपक्रमेण उद्वर्तन्ते नैतेषामुद्वर्तनाया नियमोऽपितु अनियमः कदाचित् कस्यचिन् उद्वर्तना आत्मोपक्रमेण-कस्यचित् कदाचित परोपक्रमेण, कस्यचित् कदाचित् निरुपक्रमेणापि उद्वर्तना भवतीति भावः । 'सेसा निरुपक्रम से ही होता है एवं जाव थणियकुमारा' इसी प्रकार से नारक जीवों के जैसे ही स्तनितकुमार तक के जीव न आत्मोप. क्रम से उर्सना करते हैं, न परोपक्रम से उद्वर्तना करते हैं किन्तु निरुपक्रम से ही उबलना करते हैं असुरकुमार से लेकर स्तनितकुमारतक के सब भवनवासी देवों की उद्वर्त्तना निरुपक्रम से ही होती है यही इस कथन का तात्पर्य हैं 'पुढवीकाइया जाव मणुस्सा तिसु उव. घट्टति' पृथिवीकायिक से लेकर मनुष्य तक के जीव तीनों प्रकार से भी उद्वर्तना करते हैं अर्थात् एकेन्द्रिय, दीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, एवं पश्चेन्द्रियतिथंच मनुष्य ये सब आत्मोपक्रम से, परोपक्रम से एवं निरुपक्रम से इन तीनों प्रकार से भी उद्वर्तना करते हैं इनके उर्सना का नियम नहीं है किन्तु अनियम है कदाचित् किसी के उर्सना आत्मोपक्रम से कदाचित् किसी के परोपक्रम से और कदाचित् किसी याय छे. 'एव जाव थणियकुमारा' मे शत ना२४ वानी भार તનિતકુમાર, સુધીના જી આ પકમથી ઉદ્વર્તન કરતા નથી. તેમજ પરિપક્રમથી પણ ઉદ્વર્તન કરતા નથી પરંતુ નિરૂપક્રમથી જ ઉદ્વર્તન કરે છે. અસુરકુમારથી લઈને સ્વનિતકુમાર સુધીના બધા ભવનવાસી દેવાની ઉદ્વર્તના नि३५भयी थाय छे. मे 40 यननुं ता५य छे. 'पुढवीकाझ्या जाव मणुस्सा तिसु उववढीति' पृथ्वीपिंथी मनुष्य सुधीन o त्र પ્રકારથી ઉદ્વર્તન કરે છે. અર્થાત્ એકેન્દ્રિય દ્વીન્દ્રિય, ત્રીન્દ્રિય, ચતુરિન્દ્રિય અને પંચેન્દ્રિય તિર્યંચ અને મનુષ્ય આ બધા આત્મપક્રમથી, પશેપકમથી, અને નિરૂપક્રમથી એ રીતે ત્રણે પ્રકારથી ઉદ્વર્તન કરે છે. તેઓની ઉદ્વર્ત. નાનો નિયમ હેતે નથી પરંતુ અનિયમ છે. કેઈ વાર કઈ આપકમથી ઉદ્વર્તન કરે છે. કેઈવાર કઈ પરોપકમથી અને કદાચિત કોઈ નિરપ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૪