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________________ ११६ भगवतीसूत्रे पक्रमैं रुत्पत्तिमभिधाय एभिरेव उद्वर्त्तनामभिधातुकाम आह- 'नेरइया ०१' इत्यादि, 'नेरइया गं भंते!' नैरयिकाः खलु भदन्त ! 'किं आओवक्कमेण उववहंति' किमात्मोपक्रमेण आत्मना स्वयमेव उपक्रमणं तेन आत्मोपक्रमेण उदन्तेनिःसरति अथवा 'परोवक्कमेणं उपबर्हति' परोपक्रमेण अन्यक्रतमरणेन उद्वर्तन्ते नरकान्निस्सरन्ति अथवा 'निरुवकमेणं उपबति' निरुपक्रमेण उद्वर्तन्ते निःसरन्ति किम् ? इति प्रश्नः । भगवानाह - 'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम! 'नो 'आओaasaणं नवति' नो आत्मोपक्रमेण उद्वर्तन्ते आत्मना स्वयमेव नोद्वर्तन्तेन निःसरन्ति नारका इति, तथा - 'नो परोचकमेणं उबवद्वंति' नो परोपक्रमेणोद्वर्तन्ते - परोपक्रमेणापि नोद्वर्तन्ते न निःसरन्ति नारका जीवाः किन्तु 'निरुवक्कमेणं उववहृति' निरुपक्रमेण उद्वर्तन्ते उपक्रमणमन्तरेणैव नारकाणामुद्वर्तनासंभवात् हत्युत्तरम् नारकाणामुद्वर्तनम् न स्वेन परेण वा किन्तु निरुपक्रमेणैवेति भावः । उत्पन्न होते हैं। अब गौतम इन्हीं आत्मोपक्रम आदि द्वारा उतना के संम्बंन्ध में इस प्रकार से पूछते हैं- नेरइया णं भंते!' हे भदन्त ! नैरयिक जीव क्या आत्मोपक्रम से नरक से निकलते हैं ? अथवा परोपक्रम से नरक से निकलते हैं ? अथवा निरुपक्रम से नरक से निकलते हैं? इसके उत्तर में प्रभु गौतम से ऐसा कहते हैं कि 'गोयमा' हे गौतम! 'नो आओवकमेणं उववहंति' नारक नरक से आत्मोपक्रम से अपने आप से नहीं निकलते हैं 'नो परोवकमेणं उबवहंति' न परोपक्रम से निकलते हैं, किन्तु 'निरुत्रकमेणं उबबर्हति' निरुपक्रम से - उपक्रमण के विना ही नरक से निकलते हैं क्योंकि उपक्रम के बिना ही नारकों की उद्धर्त्तना होती है तात्पर्य कहने का यही है कि नारकों का दर्शन न स्वयं से होता है न पर से होता है किन्तु હવે ગૌતમસ્વામી એજ આત્માપક્રમ વિગેરેથી ઉદ્ધૃતનાના સંબધમાં प्रमाणे प्रभुने पूछे छे - 'नेरइया णं भंते!' हे भगवन् नारीय लवा મેપક્રમથી નરકમાંથી નીકળે છે? અથવા પરીપક્રમથી નરકથી નીકળે છે ? અથવા નિરૂપક્રમથી નરકમાંથી નીકળે છે ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે 3- 'गोयमा !' हे गौतम! 'नो आओवकमेणं उववर्हति' नार! मात्भीषम्भथी पोतानी भेजेन नरश्थी नीउजता नथी. 'नो परोवक्कमेणं उववदृंति' तेभन पोषकुमथी पशु नरम्थी नीउजता नथी. परंतु 'निरूवक्कमेणं उववर्द्धति' नि३પદ્મમથી–ઉપક્રમણુ વિનાજ નરકથી નીકળે છે. કેમકે ઉપક્રમ વિનાજ નારકાનો ઉદ્વૈતના થાય છે. કહેવાનુ તાપય એ છે કે-નારકાનુ' ઉદ્ધૃત'ન સ્વયં પેાતાની મેળે જ થઈ શકતુ નથી. તેમ પરથી પણ થતું નથી. પરંતુ નિરૂપક્રમથી જ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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