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________________ ११८ भगवती सूत्रे जहा नेरइया' शेषा यथा नैरयिकाः, शेषा:- एकेन्द्रियादिभिन्ना वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाः जीवाः, नो आत्मोपक्रमेण न वा परोपक्रमेण उद्वर्तन्ते किन्तु निरुपक्रमेणैव उद्वर्तते इत्यर्थः । ' नवरं जोइसिय वेमाणिया चयंति' नवरं केवलं ज्योतिष्कवैमानिकाच्यवन्ते अयमाशयः एकेन्द्रियादारभ्य मनुष्यपर्यन्तजीवान मुक्त्वा शेषा जीवा वानव्यन्तरज्योतिष्कवैमानिकाः निरुपक्रमेण उद्वर्तन्ते इवि कथितं तत्रैताद्वैलक्षण्यम् अवगन्तव्यं यत् ज्योतिष्क वैमानिकदण्डके 'उद्वर्तन्ते' इति न वक्तव्यं किन्तु उद्वर्तनस्थाने च्यवनं निवेश्यते, ज्योतिष्कवैमानिका निरुप के निरुवक्रम से भी उतना होती हे यही इस कथन का भाव है'सेसा जहा नेरइया' इनसे भिन्न जो वानव्यन्तर, ज्योतिष्क एवं वैमानिक जीव हैं वे न आत्मोपक्रम से वर्त्तना करते हैं और न परोपक्रम से उद्धर्त्तना करते हैं किन्तु निरुपक्रम से ही उद्वर्त्तना करते हैं । 'नवरं जोइसियवेमाणिया चयंति' इसका तात्पर्य ऐसा है कि ज्योतिष्क, एवं वैमानिक ये निरुपक्रम से उद्वर्त्तना करते हैं ऐसा जो कहा गया है सो उर्त्तना के स्थान 'च्यवन' इस पद का प्रयोग करके ऐसा कहना चाहिये कि एकेन्द्रिय से लेकर मनुष्य पर्यन्त के जीव आत्मोपक्रम से परोपक्रम से एवं निरुपक्रम से इन तीनों प्रकार से भी उद्वर्त्तना करते हैंपरंतु ज्योतिष्क एवं वैमानिक जो जीव हैं वे निरुपक्रम से ही च्यवन करते हैं तात्पर्य यही है कि देवों के दण्डकों में ज्योतिष्क एवं वैमानिक देवों के सूत्र में उर्त्तना शब्द का प्रयोग नहीं करना चाहिये उभथी पशु उद्वर्तना रे छे. या उथनना लाव छे. 'सेसा जहा नेरइया' भेनाथी जीन ने वानव्यन्तर, ज्योतिष्ठ, मने वैभानिङ वा छे, તેઓ આત્મપક્રમથી ઉદ્ભના કરતા નથી તેમજ પરાપક્રમથી પણુ ઉદ્ધૃતના कुरता नथी परंतु नियमथी ४ उद्वर्तना मेरे छे. 'नवर' जोइसिय वेमाणिया चयंति' मा उथननु तात्पर्य मे छेडे-वामध्यांतर ज्योतिष्ठ ग्यने વૈમાનિક આ બધા નિરૂપક્રમથી ઉદ્ધૃતના કરે છે, એ પ્રમાણે જે કહેવામાં आयु छे, तो ते उद्वर्तनाने स्थाने 'कयवन' मे पहने। प्रयोग उरीने बु કહેવું જોઈએ કે એકેન્દ્રિયથી લઇને મનુષ્ય સુધીના જીવા તા આત્નેપક્રમથી, પરોપક્રમથી, અને નિરૂપક્રમથી એ ત્રણે પ્રકારથી પણ ઉદ્રના કરે છે. પરંતુ થાનભ્યન્તર જ્યાતિષ્ઠ અને વૈમાનિક જે જીવ છે, તેઓ નિરૂપકમથી જ ચ્યવન કરે છે, કહેવાનું તાત્પર્ય એજ છે કે દેવાના દડકામાં વાનન્યતર, સૈતિક, અને વૈમાનિક દેવાના સૂત્રમાં ઉદ્ધૃતના શબ્દના પ્રયાગ કરવા ન શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૪
SR No.006328
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 14 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1970
Total Pages671
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size40 MB
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