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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०२० ३०१ सू०१ छोन्द्रियनामकप्रथमोदेशनिरूपणम् ४८७ वानाह-'एवं जहा बेइंदियाण एवं यथा द्वीन्द्रियाणाम् , द्वीन्द्रियविषये यथा कथितं तथैव इहापि उत्तरं ज्ञातव्यं पञ्चन्द्रियाः प्रत्येकाहाराः प्रत्येकपरिणामाः प्रत्येकशरीरा इत्यादि, 'नवरं छल्लेस्साओ' नवरं षङ्लेश्याः द्वीन्द्रियजीवापेक्षया पञ्चेन्द्रियजीवानामयं भेदः द्वीन्द्रियाणां तिस्रो लेश्याः पश्चेन्द्रियाणां तु षडिति, 'दही तिवि. हावि' दृष्टय स्त्रिविधा अपि सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिमिश्रष्टिरपीति । 'चत्तारि नाणा' चत्वारि ज्ञानानि मतिश्रुतावधिमनापर्यवरूपाणि केवलज्ञानं तु अनिन्द्रिमें प्रभु कहते हैं-'एवं जहा वेइं दियाणं' हे गौतम ! द्वीन्द्रिय जीवों के सम्बन्ध में जैसा कहा गया है वैसा ही कथन इनके सम्बन्ध में भी जानना चाहिये अर्थात् प्रत्येक पञ्चेन्द्रिय जीव अलग२ आहार करते हैं
और अलग २ रूप से उसे परिणमाते हैं और अलग २ रूप में इनका शरीर रहता है-इत्यादि सब कथन द्वीन्द्रिय जीवों के समान है फिर भी 'नवरं छल्लेस्साओ' लेश्याओं आदि की अपेक्षा कथन में थोड़ी सी भिन्नता भी है द्वीन्द्रिय जीवों के लेश्याएं ३ कही गई हैं तय कि पञ्चेन्द्रिय जीवों के लेश्याएं ६ कही गई है 'दिट्ठी तिविहावि' तथा चीन्द्रियों में सम्यग्दृष्टिपना और मिथ्यादृष्टिपना कहा गया है मिश्रदृष्टिपना नहीं तब की यहां सम्यग्दृष्टिपना, मिथ्यदृष्टिपना और मिश्रदृष्टिपना कहा गया है 'चत्तारि नाणा' वहां दो ज्ञान कहे गये हैं यहां मति, श्रुत, अवधि और मनःपर्यव चार ज्ञानभजना में कहे गये हैं केवलज्ञान अनिन्द्रिय जीवों के ही होता है इसलिये इन्द्रियवाले जीवों के वह नहीं प्रभु ४ छ है-'एवं जहा बेइंदियाण' ३ गौतम ! दीन्द्रय वाना समयमा જે પ્રમાણે કહેવામાં આવ્યું છે, એજ રીતનું કથન આ વિષયમાં પણ સમજવું. અર્થાત્ દરેક પંચેન્દ્રિય જીવો અલગ અલગ આહાર કરે છે. અને જુદા જુદા રૂપે તેને પરિણુમાવે છે. અને અલગ અલગ રૂપે તેના શરીર २ छे. विशेरे मधु थन मेद्रिय छ। प्रभारी छे. त५५ 'नवरं छ જેસારો? લેશ્યા વિગેરેની અપેક્ષાથી થોડી જુદાઈ પણું પણ છે. બેઈદ્રિય વાળા જીવેને ત્રણ લેશ્યાઓ કહી છે. અને પંચેન્દ્રિય જીવોને છ વેશ્યાઓ કહી છે. 'दिट्ठी तिविहा वि' तथा मेद्रिय वामा समष्टिपा भने भियाटप કહેલ છે. મિશ્રદષ્ટિપણું કહ્યું નથી. અહિયાં સમ્યગદષ્ટિપણુ, મિથ્યાદષ્ટિપણુ, भने भिष्टि से छे. 'चत्तारि नाणा' त्यो मे ज्ञान ४ छ भने અહિયાં મતિજ્ઞાન, શ્રુતજ્ઞાન, અવધિજ્ઞાન અને મન:પર્યવજ્ઞાન એ પ્રમાણે ચાર જ્ઞાન કહ્યા છે, કેવળજ્ઞાન અનિન્દ્રિય-ઈદ્રિય વિનાના જીવને જ હોય છે. તેથી
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩