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________________ ४५२ भगवतीसूत्रे करणं प्रज्ञप्तम्-कथितम् तत्र क्रियते-निष्पद्यते कार्य येन तत् करणम् साधकतमम् क्रियां प्रति असाधारणं कारणमिति यावत् , अथवा क्रियते यत् तत् करणम्-कृतिः करणं क्रियामात्रम् अथ यदि क्रियैव करणं तदा करणनिवृत्योः को भेदः करणमपि क्रियारूपं निर्वृत्तिरपि क्रियारूपैव ? इति चेत् अत्रोच्यते-करणम्-आरम्भक्रिया, निवृत्तिस्तु कार्यस्य निष्पत्ति रित्येतावतैव करणनिष्पत्त्योर्भेद इति, नथा च एतादृशं करणं पञ्चविधमिति । पञ्चभेदानेव दर्शयति 'तं जहा' इत्यादि 'तं जह। तद्यथा-'दधकरणं' द्रव्यकरणम्-द्रव्यरूपं करणमिति द्रव्यकरणं यथा द्यते कार्य येन तत् करणम्' इस व्युत्पत्ति के अनुसार जिससे कार्य निष्पन्न होता है वह करण है अर्थात् कार्य की निष्पत्ति में जो असा. धारण कारण होता है वह करण है अथवा-'क्रियते यत् तत् करणम्' इस भावव्युत्पत्ति के अनुसार जो कृति, करण और क्रियामात्र है वही करण है यहां इस व्युत्पत्ति के मानने पर ऐसी शंका हो सकती है, कि यदि क्रिया को ही करण माना जाता है फिर करण में और निवृत्ति में कोई अन्तर ही नहीं रहता है क्योंकि दोनों में क्रियारूपता ही रहती है अर्थात् करण भी क्रिया रूप होता है और निर्वृत्ति भी क्रियारूप होती है तो ऐसी इस शंका का समाधान इस प्रकार से है-आरम्भ क्रिया का नाम करण है और कार्य की निष्पत्ति हो जाने का नाम निर्वृत्ति है यह इन दोनों में अन्तर है इस प्रकार का यह करण पांच प्रकार का कहा गया है-वे भेद उसके ऐसे हैं 'व्वकरण' १ द्रव्यकरण-द्रव्य. करण-द्रव्यरूप जो करण है वह द्रव्यकरण है जैसे कुठार आदि अथवा 'क्रियते निष्पाद्यते कार्य येन तत् करणं' मा व्युत्पत्ति प्रमाणनाथी आय ४२५ તે કરણ છે. અર્થાત કમની નિષ્પત્તિમાં જે અસાધારણ કારણ હોય છે. તે ४२५ छ. 'क्रियते यत् तत् करणम्' मा वायुत्पत्ति प्रमाणे ति, ४२५५ અને ક્રિયા માત્ર છે, તે જ કારણ છે. આ વ્યક્તિ માનવામાં આવે તે એવી શકા થાય છે કે જે કિયાને જ કરણ માનવામાં આવે તે પછી કરણમાં અને નિવૃત્તિમાં કોઈ ફેરજ રહેતું નથી. કેમ કે એ બન્નેમાં ક્રિયાપણું જ રહે છે. અર્થાત્ કરણ પણ ક્રિયા રૂપ જ હોય છે. અને નિવૃત્તિ પણ ક્રિયા રૂપ જ હોય છે. આ શંકાનું સમાધાન આ પ્રમાણે છે. આરંભ ક્રિયાનું નામ કરણ છે. અને કાર્યની નિષ્પત્તિ થઈ જાય તેનું નામ નિવૃત્તિ છે. આ બન્નેમાં એ જ અંતર છે. આ રીતનું આ કરણ પાંચ પ્રકારનું બતાવેલ છે. તેના તે मेह! म प्रमाणे छ.-'दब्धकरणं' द्र०५४२४-२५३५थी रे ४२५ छे ते द्रव्य શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૩
SR No.006327
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 13 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1969
Total Pages970
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size58 MB
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