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________________ ५९० भगवतीस्त्रे सन् पुनर्नरकगति न यास्यति किन्तु मोक्षं गमिष्यति स नैरयिकभावं सर्वदैव विनुश्चति आः स चरमः एतद् व्यतिरिक्तो नारकोऽचरमः, अत एवोक्तं कदाचि चरमः कदाचिदचरम इति । “एवं जाव वेमाणिए" एवं यावद् वैमानिका, एवमनेन उक्तपकारेण वैमानिकपर्यन्त जीवे चरमत्वाचरमत्ववर्णनं विशेषम् "सिद्ध जहा जीवे सिद्धो यथा जीवः यथा जीवो जीवत्वं न कदाचिदपि त्यजति स न जीवत्वापेक्षया चरम स्तथा सिद्धोऽपि सिद्धत्वपर्यायं न कदापि त्यजति इत्यतः सिद्धवापेक्षया सिद्धो न चरमोऽपितु अवरम एव भवतीति भावः । एकवचनाश्रित्य दण्डकमभिधाय बहुवचनाश्रितदण्डकमाह-"जीवा गं पुच्छा" जोवाः खलु पृच्छा, हे भदन्त ! जीवा जीवभावेन-जीवत्वपर्यायेण चरमा अचरमा वेति प्रश्नः, भगवानाइ-गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम! "नो चरिमा अवरिमा" नो चरमा अवरमाः, हे गौतम ! जीवाः कदाचिदपि जीवत्वगति में नहीं जायगा किन्तु मोक्ष में जायगा वह नारक नैरयिक भाव को सर्वदा छोड़ देता है इसलिये उसे चरम और जो नारक ऐसा नहीं है वह अचरम है। इसी कारण यहां ऐसा कहा गया है । 'एवं जाव वेमाणिए' इसी प्रकार से यावत् वैमानिक तक जानना चाहिये। 'सिद्धे जहा जीवे सिद्ध अपनी अपनी सिद्धत्वपर्याध की अपेक्षा सदा जीव के जैसा अचरम है क्योंकि वे अपनी उस पर्याय को अब त्रिकाल में भी छोडनेवाले नहीं हैं । जिस प्रकार से यह दण्डक सूत्र-एकवचन को लेकर कहा गया है-उसो प्रकार से बहुवचन को लेकर भी दण्डक कह लेना चाहिये-जैसे 'जीवाणं भंते ! पुन्छ।' हे भान्त! समस्त जीव जीवभावसे क्या बरम है या अचरम है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोषमा' इत्यादि । हे गौतम ! समस्त जीव जीवत्व पर्याय से 'नो चरिमा, अचरिमा' चरम નરકથી નીકળીને ફરીને નરકગતિમાં ન જાય પણ મિક્ષમાં જાય તે નારક નરયિક ભાવને સર્વદા છેડી દે છે. તેથી તેને ચરમ કહ્યો છે. અને જે નાર? એ નથી તે भयरम छ. मे ४॥२४की मडिया से प्रमाणे घुछ. 'एवं जाव चेमाणिए' से प्रमाणे यावत् वैमानिक सुधी सभा. 'सिद्धे जहा जीवे सिद्धपोताना સિદ્ધ પણાની પર્યાયથી જીવની માફક સદા અચરમ છે, કેમકે તે પિતાની એ પર્યાયને હવે ત્રણે કાળમાં પણ છેડવાવાળા નથી. જે પ્રમાણે આ દંડક સૂત્ર એક વચનને લઈ કહ્યું છે– એજ રીતે બહુવચને આશ્રય કરીને પણ દંડક બનાવી से भ-'जीवाणं भंते ! पुच्छा' गवन् मा ७१ माथी शु भ छ है भयरम छ १ ते उत्तम प्र छ -'गोयमा' શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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