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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०१ सू०२ सयतासयतत्वे जीवद्वारम् ५८९ समयो जीवो जीवत्वमस्यन्तं कदाचिदपि न त्यक्ष्यतीत्युत्तरम् । यस्य सर्वदा अन्तो विनाशो भवति स चरमः, यस्य कदापि अन्तो विनाशो न भवति सोऽचरम इति कथ्यते तदिह जीवस्य जीवभावेन कदापि वियोगो न भवति अतो जीवो न जीवभावेन चरमः अपि तु अचरम एवेति भावार्थः । “नेरइएणं भंते !" नैरयिका खलु भदन्त ! "नेरइयभावेणं पुच्छा" नैरयिकमावेन-चरमोऽचरमो वेत्येवं रूपेण पृच्छा-प्रश्ना, भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि, 'गोयमा' हे गौतम ! "सिय परिमे सिय अचरिमे" स्याचरमः स्यादचरमः, यो नैरयिको-नारकावृत्तः गौतम का प्रश्न है । इसके उत्तरमें प्रभु कहते हैं-'नो चरिमे अचरिमे' हे गौतम! जीव अत्यन्तरूप से अपनी जीवत्वपर्याय को कभी भी नहीं छोडेगा जिसका सर्वदा अन्त-विनाश-हो जाता है वह चरम
और जिसका कदापि अन्त नहीं होता है वह अचरम है ऐसा कहा गया है। जीसका जीवभाव से कभी भी जब अन्त ही नहीं होता है तो इससे यही जाना जाता है कि वह उस भाव से चरम नहीं है अपितु अचरम ही है। ____ अप गौतम ! प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'नेरइए णं भंते ! नेराय भावेणं पुच्छा' हे भदन्त ! नैरयिक नैरयिक रूपसे चरम है या अचरम है इस के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! सिय चरिमे लिय अचरिमे' हे गौतम ! नैरयिक कदाचित्-चरम हैं और कदाचित् अचरम है ? तात्पर्य इसका ऐसा है कि जो नारक नरकसे निकलकर पुनः नरकनथी. परंतु भयभ ॥ छे 20 प्रश्न उत्तरमा प्रभु ४ छ -'नो चरिमे अचरिमे'-3 गौतम ! ७१ यताथी पोताना ७५ पर्याय याश्य પણ છેડતો નથી. જેને સર્વદા અંત-વિનાશ થઈ જાય છે તે ચરમ અને જેને ક્યારેય અંત ન થાય તે અચરમ છે. તેમ કહેવામાં આવ્યું છે, તેને ભાવ એ છે કે-જેને જીવભાવથી કયારેય પણ જે અંતજ થતું નથી. તે તેથી એમજ સમજાય છે કે-તે એભાવથી ચરમ નથી. પરંતુ અચરમ જ છે.
वे गौतमस्वामी प्रसुन मे पूछे छे -'नेरइए ण भवे नेरइयभावेणं पुच्छा' 3 ભગવન્! નૈરયિક નૈરયિકપણાથી ચરમ છે? કે અચરમ છે? આના ઉત્તરમાં પ્રભુ 3 छ 'गोयमा सिय चरिमे सिय अवरिमे' 3 गौतम ! ३२यि हायित् ચરમ છે અને કદાચિઅચરમ છે. આ કથનનું તાત્પર્ય એવું છે કે-જે નારક
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨