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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१८ उ०१ सू०१ जीवादिसिद्धान्तानां प्रथमाप्रत्वनि०५४५ एपामर्थस्तु तत्तधुदेशकार्थाधिगम्य एवातो नात्र विविच्यते / तत्र प्रयमस्य जीवद्वारस्य अभिधानायाऽऽह-'जीवे भंते !' इत्यादि / 'जीवे गं भंते !' जीवः खल्ल भदन्त ! 'जीवभावेणं किं पढमे अपढमे जीवभावेन किं प्रथमः अप्रथम:जीवभावेन-जीवत्वरूपेण किं प्रथम:- प्रथमताधर्मविशिष्टः, अयमर्थः- किं जीवेन अविद्यमानं जीवश्व प्रथमतया प्राप्तम् अथवा अपथम:-अनाद्यवस्थितजीवस्यवान् जीवः इति प्रश्नः / भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि / 'गोयमा' हे गौतम ! 'नो पढमे अपढमे नो प्रथमः अप्रथमः, हे गौतम ! अयं जीवो जीवभावेन प्रथमो न किन्तु अप्रथमः यतो जीवेन अनादिकालादेव जीवत्यात्मकभावस्य प्रापकएव नतु आ जावेगा। अतः यहां स्वतंत्ररूप से इनके अर्थ की विवेचना नहीं की जाती है। प्रथम जीवद्धारअब सूत्रकार जीवद्वार का कथन करने के लिये 'जीवेणं भंते' इत्यादि सूत्र कहते हैं- जीये णं भते! जीवभावेणं किं पढमे, अपहमे ? इनमें गौतमने प्रभुसे ऐसा पूछा हैं-हे भदन्त ! जीवत्व की अपेक्षा से जीव प्रथम है ? या अप्रथम है ? तात्पर्य इस प्रश्न का ऐसा है कि जीव ने जो जीवस्व प्राप्त किया है वह पहिले अपने में अविद्यमान था फिर उसे प्राप्त किया है ? या अनादि काल से ही जीवत्व अवस्थित है और उसी जीवत्वरूप यह जीव है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! नो पढमे, अपढमे है गौतम! जीवभाव की अपेक्षा से यह जीव प्रथम नहीं है किन्तु अप्रथम है। अनादिकाल से ही यह जीव जीवत्वरूप અર્થ કહેવામાં આવશે ત્યારે ત્યારે સ્વયં સમજવામાં આવશે. તેથી સ્વતંત્ર રૂપથી તેના અર્થનું વિવેચન અહિં કરવામાં આવતું નથી. पडद्वारवे सूत्रा२ पार्नु थन 421 / भाट 'जीवेणं भंते !' त्यादि સૂત્ર કહે છે–આમાં ગૌતમસ્વામીએ પ્રભુને એવું પૂછયું છે કે હે ભગવાન જીવપણાની અપેક્ષાએ જીવે પ્રથમ છે? કે અપ્રથમ છે? આ કથનનું તાત્પર્ય એ છે કે-જીવે જે જીવપણુ પ્રાપ્ત કર્યું છે. તે પહેલાં પિતાનામાં વિદ્યમાન હતું અને હવે પ્રાપ્ત કર્યું છે? કે અનાદિકાળથી જ જીવપણું રહેલું છે, અને ते 015 // 35 मा 01 छे ? 2 // प्रश्न उत्तरमा प्रभु 43 छ -'गोयमा ! नो पढमे अपढमे' के गौतम ! 1 लाथ मा 1 प्रथम नयी પરંતુ અપ્રથમ છે. એટલે કે અનાદિકાળથી જ આછવ જીવત્વરૂપ દર્શાવવાળો भ० 69 શ્રી ભગવતી સૂત્ર : 12
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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