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प्रमेयन्द्रका टीका श०१६ उ०१ सू०५ स० जीवादीनामाधकरणत्वादिनि० ४१ अधिकरणम् ? 'एवं जहेब सोइ दियं तव निरवसेसं' एवं यथैव श्रोत्रेन्द्रियं तथैव निरवशेषम्, श्रोत्रेन्द्रियविये यथा-विचारः कृतस्तथैव मनोयोगविषयेपि विचारः करणीय इत्यर्थः । 'वजोगे एवंचेव' बचोयोगे एवमेव, मनोयोगवत् वचोयोगेपि विचारः करणीय इति भावः । 'नवरं प्रतिदिवाणं' नवरं विशेषस्त्वयम्एकेन्द्रियवनाम एकेन्द्रियान वर्जथित्वेत्पर्थः, मनोयोग बचोयोगयोरेतावानेव भेदः यत् वचनयोगे एकेन्द्रियजीवानां संग्रहो न करणीयः एकेन्द्रियजीवव्यतिरिक्तजीवदण्डके एव वचनयोगमाश्रित्य विचारः करणीय इति । एवं कायजोगो त्रि' एवं काययोगोपि वचनयोगवन् काययोगेपि विवारः करणीयः, नवरं सब्बकरता हुआ जीव क्या अधिकरणी होता है या अधिकरणरूप होता है? उत्तर में प्रभु कहते हैं- एवं जहेब सोइदियं तहेव निरवसेसं' हे गौतम! श्रद्धय के विषय में जैसा विचार किया गया है उसी प्रकार का विचार मनोयोग के विषय में भी कर लेना चाहिये। 'बहजोगे एवं चैव वनयोग के विषय में भी मनोयोग के विचार के जैसा विचार कर लेना चाहिये। 'नवर' एगिंदियवज्जाणं' परन्तु यहां पर एकेन्द्रिय जीव को छोड देना चाहिये - अर्थात् मनोयोग और वचनयोग के विचार में केवल यही अन्तर है कि वचनयोग एकेन्द्रिय जीव को नहीं होता हैइसलिये वचनयोग में एकन्द्रिय का ग्रहण वर्जनीय कहा गया है । इसीलिये एकेन्द्रिय जीवव्यतिरिक्त जीवदण्डक में ही वचनयोग लेकर विचार करने की बात कही गई है। ' एवं कायजोगो वि' वचनयोग के जैसा काययोग में भी विचार किया गया है ऐसा जानना चाहिये,
કરતા જીવ શું અધિકરણી હોય છે કે અધિકરણ રૂપ હાય છે ? ઉત્તરમાં પ્રભુ
छे - ' एवं जहेव सोइदियं तद्देव निरवसेसं " हे गौतम! श्रोत्रेन्द्रियना વિષયમાં જેઆ વિચાર કરવામાં આવ્યા છે તેજ રીતના વિચાર મનાયેાગના विषयभां पशु री सेवा - लेखे “ वइजोगे एवं देव” भनोयोजना सभधभां જેવા વિચાર કર્યાં છે તેવા જ વિચાર વચનયોગના સબંધમાં પણ સમજી सेवा. " नवरं एनिंदियवज्जाणं" परन्तु अडिया गोडेन्द्रिय लवने छोड़ी हेवा જોઈ એ અર્થાત્ મનાયેાગ અને વચનયાગના વિચારમાં કેવળ એટલેા જ ફરક છે કે વચનયોગ એકેન્દ્રિય જીવાને હાતા નથી એટલા માટે વચનચેાગમાં એકેન્દ્રિયનું ગ્રહણ છેડવાનુ કહ્યુ છે, તેથી એકેન્દ્રિયથી જુદા જીવ उम्भां वयनयोगने सर्धने विचार हरवानी वात उडे छे. “एवं कायजोगो વિ’વચનયોગની માફક કાયસેગના વિચાર પણ કરવામાં આવ્યા છે
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨