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________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श० १७ उ०२ सू० ४ जीवस्य रूप्यरूपित्वनिरूपणम् ४११ गौतम ! 'नो इणढे सपट्टे' ना यमर्थः समर्थः पुनः प्रश्नति ‘से केण?णं भंते !' तत् केनार्थे न भदन्त ! 'एवं बुच्चइ देवे णं जाव नो पभू अरूवि विउवित्ता णं चिट्टित्तए' एवम् उच्यते देवः खलु नो प्रभुः यावत् अरूपिणं स्वात्मानं विद्य खलु स्थातुम् अत्र यावत्पदेन 'महडिए' इत्यारम्प 'पुवामेव रूबी भक्त्तिा ' इत्य. न्तस्य संग्रहः । भगवानाह-'गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम ! 'अहमेयं जागामि' इत्यादि अहमेतद् जानामि अम् एतत् वक्ष्यमाणं प्रश्ननिर्णयभूतं वस्तु जानामि विशेषपरिच्छेदेनेत्यर्थः 'अहमे पासामि' अहमेतत् पश्यामि अहम् एतत् वक्ष्यमाणं प्रश्ननिर्णयभूतं वस्तु पश्यामि सामान्यपरिच्छेदतो दर्शनेन इत्यर्थः 'अहमेयं बुज्झामि' अहमेतत् बुद्धये श्रद्धये बोधस्य सम्यग् ज्ञानपर्याय. को भूत करके बाद में अपने को अमूर्त करके रह सकने में समर्थ हो सकता है क्या ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! णो इणटे समढे' हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं हैं। पुनः गौतम पूछते हैं-'से केणट्टेणं भते ! एवं बुच्चह देवेणं जाव नो पभू अरूवि विउवित्ता ण चिट्टित्तर' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते है कि महर्द्धिक यावत् महासुखशाली देव पहिले अपने को मूर्त करके बाद में अपने को अमूर्त करके रह सकने में समर्थ नहीं हो सकता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा! अहमेयं जाणामि, इत्यादि -हे गौतम मैं उस वस्तु को ऐसा ही जानता हूं 'अहमेयं पासामि' प्रश्न के द्वारा निर्णयभूत हुई उस वस्तु को मैं सामान्य ग्राही दर्शन से ऐसी ही देखता हूं, 'अहमेयं घुज्झामि' ऐसी ही में उसे श्रद्धा में लेता આ પ્રશ્નને સારાંશ અવે છે કે-દેવ પહેલાં પોતે મૂર્ત થઈને તે અમર્ત બનીને રહેવાને સમર્થ થઈ શકે છે ? તેના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે છે है-"गोयमा” 3 गौतम “णो इणद्वे सम?" l अथ ॥२।१२ नथी शिथी गीतम २॥ पूछे थे 3-“से केणटेणं भंते ! एवं बुच्चइ देवे णं जाव नो पभू अरूवि विउव्वित्ता णं चिद्वित्तए" हे सन् २०१५ मे ॥ ४२णे छ।? કે મહાદ્ધિવાળા યાવત્ મહાસુખવાળે દેવ પહેલાં પિતે મૂત બનીને તે પછી પિતે અમૂત્ત થઈ રહી શકતો નથી ? આ પ્રશ્નના ઉત્તરમાં પ્રભુ કહે "गोयमा अहमेयं जाणामि" प्रत्याहि गौतम ९ ते १२२ तमा MY छु "अहमेयं पासामि” प्रश्ना। नित थयेने १२ सामान्याही शनी मेवा शतथी न छु. “अहमेयं बुज्झामि" से જ રીતથી હું તેને શ્રદ્ધાના વિષયભૂત બનાવું છું. કેવળજ્ઞાનથી જાણું છું. શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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