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भगवतीसूत्रे त्वात् 'अहमेयं अभिलमनागच्छामि' अहमेतत् अभिसमन्वागच्छामि-अभिआभिमुख्येन सम् सम्यक ईष्टानिष्टावधारणेन अनुस्वरूपावगमात् पश्चात् आसमन्तात् जानामि इत्यर्थः सबै रेव परिच्छित्तिप्रकारैः परिच्छिनधि इति यावत् एतावता प्रकरणेन स्वस्य वर्तमानकालेऽर्थपरिच्छे इकत्वमुक्त्वा अथातीतकालेऽपि एमिरेव धातुभिस्तदेव दर्शयन्नाह-'मए एयं' इत्यादि । 'मए एयं नायं' मश एतत् ज्ञातम्-मया एतद् वक्ष्यमाणमश्ननिर्णयभूतं वस्तु प्रश्नकरणापूर्वमेव ज्ञातम् विशेषपरिच्छेदेन इत्यर्थः 'मए एयं दिटुं' मया एतद् दृष्टम् सामान्यपरिच्छेदतो दर्शनेनेत्यर्थः 'मए एयं बुद्धं' मया एतद् बुद्धम् , श्रदधितम् बोधस्य सम्यग्दर्शनपर्यायस्वात् 'मए एयं अमिसमन्नागयं' भया एतत् अभिसमन्वागतम्-अभिवि. धिना सांगत्येन चावगतं सर्वै रेव बोधप्रकारैः परिच्छिन्नम् , किं तत् अभिसमन्याहूं, 'अहमेयं अभिसमन्नागच्छामि' सर्व प्रकार की परिच्छित्तियों द्वारा मैं उसे इस प्रकार से ही अच्छी प्रकार से जानता हूँ । इस प्रकार वर्त मान काल में अपने में अर्थ परिच्छेदकता कहकर भूतकाल में इन्हीं धातुओं द्वारा इसी को प्रकट करने के लिये प्रभु कहते हैं-'मए एयं नायं' 'हे गौतम ! प्रश्न द्वारा निर्णयकरनेसे पहिले मैंने इस वस्तु को इसी प्रकार से जाना था, तथा 'मए एयं दिट्ठम्' सामान्य परिच्छेद द्वारा मैंने इस वस्तु को इसी प्रकार से देखा था 'मए एयं वुझं बोध को सम्य. ग्दर्शन की पर्याय होने से मैने इस वस्तु को इसी प्रकार से श्रद्धा का विषयभूत बनाया था, 'मए एयं अभिसमन्नागयं सर्वप्रकार के बोधों द्वारा मैंने इसी प्रकार से जानाथा, 'जं णं तहागयस्स जीवस्त सविस्त, सकम्मस्म, सरागस्स, सवेदस्त, समोहस्स, सलेप्तस्म, ससरीरस्स "अमेय अभिसमन्नागच्छामि” १२७ प्रानी पत्ति । दाई તેને તે રીતે જ સારી રીતે જાણું છું. આ રીતે વર્તમાનકાલથી પિતામાં અર્થ ઘટાવીને ભૂતકાળમાં એ જ ધાતુઓથી એ જ વાત પ્રકટ કરતાં પ્રભુ हु छ -मए एवं नायं" गौतम प्रश्न द्वारा निणय र्या ५७i मे' मा १२तुन मा शत on ती. तेम २१ "मए एवं दिटुं" सामान्य परिक वा म मा पस्तुन 2010 शत ने ती. "मए एवं बुद्धं" સમ્યગુદર્શનની પર્યાયરૂપ બંધ હોવાથી મેં આ વસ્તુને આ રીતે જ श्रद्धाना विषयभूत मनावी ती. "मए एवं अभिनमन्नागयं" सब ना माधी । मे मा शते ४ ॥९यु तु. जं गं तहागयस्स जीवस्स सविस्म, सकम्मरस, सरागस्स, सबेदगस्स समोहस्स सलेसस्स समरीरस्स,
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨