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________________ प्रमैयबान्द्रका टीका श०१७ उ० १ सू०३ शरीरेन्द्रिययोगानां क्रियानि० ३६५ तिस्रः क्रियाः भवन्तीति विनिधाय कथितम् 'सिय तिकिरिए' इति स्यात् कदा. चित् परेषां परितापाद्य भावे क्रियात्रयेणैव युक्तो भवत्युक्तम् ‘सिय चउक्किरिए' स्यात्-कदाचित् चतुष्क्रियः यावत् परपरितापादिकं कुर्नन् औदारिकशरीरं निवर्तयति तावत् परितापनिकी क्रिया सहिताश्चतस्रः क्रिया भवन्तीति । 'सिय पंच किरिए' स्यात् पश्चक्रियः यदा खलु जीवः औदारिकशरीरं निवर्तमानः परेषां प्राणिनाम् विराधनां करोति तदा प्राणातिपातसहित पञ्च क्रियावान् भवतीत्यत उक्तम् 'सिय पंव किरिए' इति । एवं पुडवोकाइए वि' एवं पृथिवी कायिकोऽपि यथा सामान्यतो जीवविषये औदारिकशरीरनिर्वर्तने कदाचित् त्रिक्रियत्वं कदाचित् चतुष्क्रियत्वं कदाचित् पश्चक्रियत्यम् तथा पृथिवीकायिकैकेन्द्रिय जीवस्यापि औदारिकशरीरनिर्वर्तने त्रिक्रियावत्वं चतुष्क्रियावत्वं पश्चक्रियाऐसा जो कहा गया है सो उसका भाव ऐसा है अन्य जीवों को परितापादिक करता हुआ जीव जय औदारिकशरीर का बन्ध करता है-तष वह परितापनिकी क्रिया सहित चार कियाओं का कर्त्ता होता है। "सिय पंच किरिए' ऐसा जो कहा गया है सो उसका तात्पर्य ऐसा है कि जब जीव औदारिक शरीर का बन्ध करता हुआ दूसरे जीवों की विराधना करता है तब वह प्राणातिपात सहित पांच क्रियाओं वाला होता है । ‘एवं पुढवीकाइए वि' जिस प्रकार से वह पूर्वोक्त कथन सामान्य जीव के विषय में औदारिक शरीर की निर्वर्तना में कहा गया है उसी प्रकार से पृथिवी कायिक एकेन्द्रिय जीव के विषय में भी औदारिक शरीर के निर्वर्तन में कहलेना चाहिये-अर्थात् एक पृथिवीकापित जीव औदारिक शरीर का निर्वर्तन करता हुआ कदाचित् तीन क्रियाओंवाला होता है और कदाचित् चार क्रियाओवाला प्राद्विविधीमे या am छ. "सिय चउकिरिए" मी वान પરિતાપ વિગેરે કરનારે જીવ જ્યારે ઔદારિક શરીરનો બંધ કરે છે. ત્યારે ७५ परितापनिकी छिया साथे या२ (या। पाणे थाय छे. 'सिय पंचकिरिए'' यारे मोहा२४ शरीरने। ४२ना२। ०१ मीन वानी વિરાધના કરે છે. ત્યારે તે પુરુષ પ્રાણાતિપાત સહિતની પાંચે ક્રિયાઓ पाणे। थाय छे. “एव पुढवी काइयाए” 2 शत पूति थन सामान्य જીવોના વિષયમાં ઔદારિક શરીરના સંબંધમાં કહ્યું છે. તેજ રીતે પૃથ્વીકાયિક એકેન્દ્રિય જીવોના વિષયમાં પણ ઔદારિક શરીરના સંબંધમાં કથન સમજી લેવું. અર્થાત એક પ્રકાયિક એકેન્દ્રિય જીવ દારિક શરીરને બંધ કરતા કોઈક વાર ત્રણ ક્રિયાઓ વાળા થાય છે. અને કેઈક વાર ચાર શ્રી ભગવતી સૂત્રઃ ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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