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भगवतीसूत्र
पेक्षया जीवादि दंडकमाश्रित्य भावतः सुप्तत्वं जाग्रत्त्वं च प्ररूपयन्नाह-'जीवाणं' इत्यादि । 'जीवा णं भंते !' जीवाः खलु भदन्त ! 'किं सुत्ता जागरा सुत्तजागरा' कि सुप्ताः जागरिताः सुप्तजागरिता वा, ये इमे चतुर्विंशतिदण्डकस्थिता जीवास्ते सुप्ता वा जागरिता वा, सुप्त जागरिता वेति प्रश्नः, भगवानाह-गोयमा' इत्यादि । 'गोयमा' हे गौतम! 'जीवा सुत्ता वि' जीवाः सुप्ता अपि सर्वविरति रूपमबोधस्याभावात्-सर्वविरत्यभाववत्वात् सुप्ता इव मुप्ता इति । 'जागरा वि' जागरिता अपि सर्वविरतिरूपप्रवरजागरणमद्भावात् जागरिता इव की अपेक्षा लेकर किया गया है। अब यहां से आगे विरति रूप भाव की अपेक्षा से जीवादिदण्डक को आश्रित करके भावतः सुप्तत्व की और जाग्रतत्य की प्ररूपणा प्रश्नोत्तररूप में की जाती हैगौतम प्रभु से पूछरहे हैं-"जीवाणं भंते !" हे भदन्त २४ दण्डक में स्थित जो ये जीव हैं वे जीव "किं सुत्ता, जागरा" क्या सुप्त है, या जागरित है ? या सुप्त जागरित हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते है"गोयमा" हे गौतम ! "जीवा सुत्ता वि" चौवीस दण्डक में स्थित जो जीव हैं वे सुप्त भी हैं यह कथन भावसुप्त की अपेक्षा से समझना चाहिए क्योंकि ऐसे जीवों के सर्वविरतिरूप प्रबोध का अभाव रहता है। इसलिये सर्वविरति के अभाव वाले होने से इन्हें सुप्त के जैसा सुप्त कहा गया है "जागरा वि" जागरित भी हैं-ऐसा यह कथन सर्व विरति रूप प्रवर जागरण के सद्भाव को लेकर कहा गया जानना चाहिए अतः सर्वविरतिरूप जागरण के सद्भाव से इन्हें जागरित
હવે અહિંથી આગળ વિરતિરૂપ ભાવની અપેક્ષાથી જીવાદિક દંડકને આશ્રિત કરીને ભાવતઃ સુપ્તત્વની તથા જાગ્રતત્વની પ્રરૂપણ પ્રશ્નોત્તરના રૂપમાં ४२१ामा माछ. तमा गौतम सामी प्रभुने पूछे छे है 'जीवा णं भंते !" 3 सपा ! यावीस मा २२९ २ ॥ ७॥ छे. ते 'कि' सुत्ता जागरा सुत्तजागरा' शु' सूता छ १ है त छ १ . भुत त छतना उत्तरमा प्रभु छ 'गोयमा गौतम ! 'जीवा सुत्ता वि' यावीस દંડકેમાં રહેલા જે જીવે છે તે સુપ્ત પણ છે. આ કથન ભાવસુપ્તની અપેક્ષાએ કરવામાં આવ્યું છે કેમકે એવા જીવેને સર્વવિરતિરૂપ પ્રબંધને અભાવ હોય છે. જેથી સનવિરતિના અભાવવાળા હોવાથી તેઓને સુપ્તના
4। सुस्त उद्या छे. 'जागरा वि' अत५ छे. २॥ ४थन स विति३५ જાગૃતના સદ્દભાવને લઈને કહેવામાં આવ્યું છે. જેથી સર્વ વિરતિરૂપ જાગ
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨