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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १६ उ० ४ सू० १ कर्मक्षपणनिरूपणम् १२३ शिथिलीकृतानि मन्दविपाकी कृतानि कर्माणि 'मिडियाई' कयाइ" निष्ठितानि कृतानि - निःसत्ताकानि विहितानि 'विष्परिणामियाई' विपरिणामितानि स्थिति घातरसघातादिभिर्विपरिणामं नीतानि तानि कर्माणि झटिति विनाशम् उपयान्तीत्यर्थः खिप्पामेन परिविद्धत्याहं भवंति' क्षिममेव परिविध्वस्तानि भवन्ति शीघ्रमेव यथास्यात्तया नष्टानि भवन्ति तानि कर्माणि 'जावइयं तावइयं जाव महापज्जसाणा भवंति यावत्कां तावत्कामपि खलु यावत् महापर्य वासना भवन्ति, अत्र यावत्पदेन 'पि य णं ते वेयणं वेएमाणा महानिज्जरा' आपे खलु ते वेदनां वेदयमाना महानिर्जराः इत्यस्य सङ्ग्रहो भवति । पुनरपि दृष्टान्तमाह - ' से जहा वा केपुरिसे' तद् यथा वा कश्चित् पुरुषः 'सुक्कं तणइस्थयं' शुष्कं तृणहस्तकम् पुलिकम् 'जायतेयंसि पक्खिवेज्जा' जाततेजसि अग्नौ प्रक्षिपेत् ' एवं जहा छट्टसर तहा अयोकवल्ले वि' एवं यथा षष्ठशतके तथा अयस्कपालेऽपि षष्ठ"सिढिलीकयाइ" मन्दविपाक वाले किए जाकर "मिडियाई कयाइ " सत्ताविहीन किये जाकर “विष्परिणामियाइ" स्थितिघात, रसघात आदि द्वारा विपरिणाम को प्राप्त किये जाकर "खिप्पामेव परिविद्धत्थाई भवंति " शीघ्र ही नष्ट कर दिये जाते हैं । " जावइयं तावइयं जाव महापज्जवसाणा भवंति" इसलिये ये श्रमण निर्ग्रन्थ भले ही चाहे जितनी मन्दवेदना का अनुभव करें तब भी महानिर्जरावाले होते हैं। पुनः दृष्टान्तान्तर से प्रकृतविषय को पुष्ट करने के लिए सूत्रकार कहते हैं- "सुक्कं तणहत्थयं" जैसे कोई पुरुष शुष्क घास के पूरा को "आयतेसि पक्खिवेज्जा" अग्नि में डाल देता है "एवं जहा छट्टसए तहा tradeलो वि' छठवें शतक के प्रथम उद्देशक में कहा गया है उसके अनुसार वह शीघ्र जल जाती है-इसी प्रकार से श्रमणनिर्ग्रन्थों के विषाम्वाजा अराधने " णिट्टियाई कयाई " सत्ता वगरना अराधने “ विष्परि णामियाइं ” स्थिति घात रसधात विगेरेथी परिशमित उरायेला " खिप्पामेव परिविद्धत्थाइं भवंति " सही ४ नाश राय छे " जावइयं तावइयं जाव महापज्जवाणा भवंति " तेथी मे श्रम निर्भथ थाडे तेली भह बेहनाना અનુભવ કરતા હાય તા પશુ મહાનિર્જરાવાળા હાય છે. શ્રમણ ભગવાન આ વિષયને વધારે સ્પષ્ટ કરવા માટે બિજુ દૃષ્ટાંત श्यायतां उडे हे हे " सुक्कं तणहत्थयं " ने अर्ध पु३ष सुध घासना पुणाने " जायतेयंसि पक्खिवेज्जा " अग्निमां नाचे “ एवं जहा छट्ठसए तहा अथकवल्को " प्रेम छहा शतम्ना पडेला उद्देशामां उडेवामां आव्यु छे ते अभा શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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