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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १६ उ० ४ सू० १ कर्मक्षपणनिरूपणम् ११५ 'नो महंताई महंगाई दलाई अदालेइ' नो महान्ति महान्ति दलानि अवदालयति खण्डानि पृथक् करोतीत्यर्थः, यथा स पुरुषः परशुपहारे कृते हूंकारादिरूपं महाशब्दमुचारयति किन्तु महद्दलं न करोतीति भावः । 'एकामेव गोयमा !' एवमेव गौतम ! 'नेरइयाण' नैरथिकानाम् 'पागाई कम्माई गाढी कयाई' पापानि कर्माणि गाढीकृतानि चिकगीकृतानि सन्ति इत्यादि सर्वम् 'जहा छट्टसर' यथा षष्ठशतके प्रथमोद्देश के कथितम् तथेहापि ज्ञातव्यम् तत्र गाढीकृतानि आत्मपदेशः सह गाढवद्धानि शणसूत्रगाहबद्ध सूचीकलापवत् विकणीकृतानि सूक्ष्मकर्मस्कन्धानां सरसतया परस्परं गाढसम्बन्धकरणेन दुर्भेदी कृतानि स्निग्धमृत् पिण्डवत् इति । 'जाव नो महापज्जवसाणा भवंति' यावत् नो महापर्यवसानाः हुंकार शब्द भी करता जाता है। परन्तु अपनी अशक्ति के कारण वह उसके खण्ड २ नहीं कर पाता है। अतः जिस प्रकार यह पुरुष परशुकुठार द्वारा प्रहार करने पर भी उस पूर्वोक्त विशेषणोंवाले काष्ठ के टुकडे २ नहीं करपाता है, इसी प्रकार से 'गोधमा !' हे गौतम ! नेरइयाणं पावाई फम्माई गाढीकथाई चिक्कणीकयाई' नैरथिकों के पाप कर्म गाढीकृत-चिक्कणीकृत-होता है इत्यादि सब इस विषय का कथन 'एवं जहा छट्ठसए' जैसा छठे शतक के प्रथम उद्देशक में कहा गया है वैसा ही यहां पर भी जानना चाहिये 'गाढीकृतानि' का तात्पर्य ऐसा है कि जिस प्रकार से सूचीकलाप-शण के सूत्र से खूब मजबूती के साथ जकड़कर बांध दिया जाता है। उसी प्रकार से सूक्ष्म कर्म स्कन्ध सरस होने के कारण परस्पर में गाढ संबन्धवाले होते हैं अतारे स्निग्धमृत्तिका के पिण्ड के जैसा दुर्भेद्य होते हैं । 'जाव नो महा पज्जबશબ્દ પણ કરતે જાય છે. પરંતુ પિતાની અશક્તિના કારણે તે પુરૂષ તે લાકડાના ટૂકડા કરી શકતો નથી એટલા માટે જે રીતે પુરૂષ કુહાડી દ્વારા પ્રહાર કરવા છતાં પણ તે પૂર્વોકત વિશેષણવાળા લાકડાના ટુકડેટુકડા કરી શકો नथी मे शत " गोयमा!" है गौतम ! " नेरइयाणं पावाई, कम्माई, गाढीकयाई" ना२यवाना ५५ मे गाढीत मने थीयीकृत डाय छ मेरा समत डाय छे. वि२ सय ५थन “जहा छट्सए" वी રીતે છઠ્ઠા શતકના પહેલા ઉદ્દેશામાં કહ્યું છે. તેવી જ રીતે અહિં પણ સમજી खे. “गाढी कृतानि "नु तात्पर्य थे छ । २a सायना । सपना દેરાથી ખૂબ મજબૂત રીતે જકડીને બાંધવામાં આવે એજ રીતે સૂમ કમ કન્ય પરસ્પરમાં અત્યંત ગાઢ સંબંધવાળા હોય છે. એથી તે ચીકણી માટીના પીંડની માફક દુધ હોય છે અર્થાત જલદી ન તેડી શકાય તેવા હોય છે, શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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