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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १६ उ० ४ सू० १ कर्मक्षपणनिरूपणम् ११३ स जराजर्जरितदेहः - अतएव 'सिढिलतयावलितरङ्गसंपिणद्धगते' शिथिलखचावळितरङ्ग संविनद्धगात्रः - शैथिल्यमाप्तया त्वचयावळितरङ्गैश्व शिथिलचर्मरेखा रूपैः संपिनद्धं व्याप्तं गात्रं शरीरं यस्य स तथा शिथिलचर्मरे खाश्रेणियुक्तशरीरवान् ''विरलपरिसडियदंत सेदी' मविरळपरिशटितदन्तश्रेणिः प्रविरलानाम् अल्पानां परिशटितानां दन्तानां श्रेणिः पङ्गिविंद्यते यस्य प्रविरलपरिशटितदन्तश्रेणिः 'उन्हाfree' उष्णाभिहतः उष्णेन सूर्यकिरणादिना संतप्तगात्रः 'तण्हाभिहए' तृष्णाभिहतः अर्त्तिध्यानयुक्तः 'आउरे' आतुरः मनोमालिन्ययुक्त इत्यर्थः, 'झुंझिए' झुंझितोबुभुक्षित इत्यर्थः देशीशब्दोऽयं बुभुक्षितार्थकः 'विवासिए' पिपासितः पिपासया Farrate इत्यर्थः, 'दुबले' दुर्बलः शारीरिकवरहित इत्यर्थः, 'किलंते' क्लान्तः - मनसा दुर्बल इत्यर्थः 'एग महं को संवगंडियं' एकां महतीं कोशाम्र गण्डि रित देह होने से ही जिस का शरीर झुर्रियों से देहकी सिकुड़न सेव्याप्त हो चुका है । 'पविरलपरिसडियदंत सेढी' 'दन्तपंक्ति भी जिस की विरल हो चुकी है और जो भी बाकी गिरने से बची है वह भी जिसकी हिल रही है। जो ' उण्हाभिहए ' सूर्य की किरणों से संतप्त देह बना हुआ है, 'तव्हा भिहए ' तृष्णा-प्यास से युक्त हो रहा है (आउरे) आतुर - मनोमालिन्य जिस में आ 'चुका है। 'झुंझिए' भूख जिसे लग रही है, 'शुझिए' यह शब्द देशीय है और बुभुक्षित (ख) अर्थ का वाचक है। 'पिवासिए' पिपासा से क्लान्तदेह बना हुआ है। 'दुब्बले' शारीरिक बल से जो विहीन बन गया है, 'किलते' मानसिक बल भी जिसका गिर चुका है ऐसा वह इन विशेषणोंवाला पुरुष 'एग महं कोसंवगंडियं । एक बडी कोशाम्र 66 लाथी વાકય કહ્યુ છે. અને જરાથી જજરીત શરીર થવાથી જેનુ શરીર કરચલી આથી વ્યાપ્ત થઈ ગયુ છે. विरलारिसडियदंत सेढी " ” દાંતાની પંકતી પણ જેની વિખરાઈ ગઈ છે અને જે પડયાવગરના બાકીના દાંત બચ્યા છે. ते पशु प्रेमना उसी गया छे. अने ने " उण्हाभिहए " सूर्यना मेनु शरीर तथी गयुं छे. " तव्हा भिहए" तृष्या ३५ यतध्यानथी युक्त छे, आतुर भननु भैयापाशु मां भाव्युं छे." झुंझिए " भूख भेने लागी छे. "झुंझिए " से शब्द देशी है. तेने लुमना अर्थमा वयराय छे. " पिवासिए" तरसधी दु:जी मनेसेो हे. " दुब्बले " शारीरी मज हेवु नाश थ गयुं छे. " किलंते " मानसिह भण પણ જેનું નષ્ટ થઈ આ વિશેષણે વાળા પુરૂષ " एकं महं कोसंबडियं " मे ચૂકયુ' છે એવા भाटी शाख શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
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