SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 104
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवतीस् सामपि वेदनं भवति, एवमेव नारकादारभ्य वैमानिक देवपर्यन्तमेकस्याः कर्ममकृते वेदनसमयेऽन्यासामपि वेदनं भवत्येवेति भावः १ । 'वेदबंधो वि तहेव' वेद बन्धोपि तथैव, एकस्याः कर्मप्रकृतेवे दे वेदने सति अन्यासां कियतीनां कर्मप्रकृतीनां बन्धो भवति, इति यस्मिन् निरूप्यते असौ वेदबन्धः कथ्यते स वेदTatara प्रज्ञापनायामिवेति, स च प्रज्ञापनासूत्रे षडूविंशतितमपदरूपः एवं हि तत्रत्यं प्रकरणम् -' कइ णं भंते कम्मपगडीओ पण्णचाओ, गोयमा अटुकम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तं जहा - गाणावरणं जाव अंतराइयं, एवं नेरइयाणं जाव वेमाणियाणं, जीवेणं भंते णाणावरणिज्जं कम्मं वेएमाणे कइ कम्मपगडिओ बंधका या सात प्रकृतियों का या छह प्रकृतियों का वेदन होता है. इसी प्रकार से नारक से लेकर वैमानिक देव पर्यन्त जीवों को एक कर्म प्रकृति के वेदन के समय में अन्य भी कर्मप्रकृतियों का वेदन होता है ऐसा जानना चाहिये ? 'वेद बंधो वि तहेव' वेद बंध भी वैसा ही है-'एक कर्म प्रकृति के वेदन होने पर अन्य कितनी कर्म प्रकृतियों का बंध होता है ? ऐसा जिसमें निरूपित किया जाता है वह वेद बन्ध कहा गया है, यह वेदबन्ध भी वैसा ही प्रज्ञापना के जैसा है यह वेदबन्ध प्रज्ञापना सूत्र में २६ वें पद रूप है। वहां का प्रकरण ऐसा है- 'कह ण' भंते ! कम्मपगडीओ' हे भदन्त ! कर्म प्रकृतियां कितनी कही गई है । 'गोयमा ! अट्ट कम्म पगडिओ पण्णत्ताओ' हे गौतम! कर्मप्रकृतियां आठ कही गई हैं । 'तं जहा णाणावरणं जाव अंतराइयं' जैसे - ज्ञानावरण से लेकर अन्तरायिक तक 'एवं नेरइयाणं जाव वैमाणियाणं' इसी प्रकार का ક્રમ પ્રકૃતિનું કે સાત કમ પ્રકૃતિએનું કે છ કમ પ્રકૃતિઓનું વેઇન થાય છે. એજ રીતે નારકથી લઈને વૈમાનિક દેવ સુધીના જીવાને એક ક પ્રફુ તિના વેદન સમયે ખીજી પણ કમપ્રકૃતિનું વેદન થાય છે તેમ સમજી a. " वेद बंधोवि तहेव " वे मे असाथ छे, भेस दे ये भ પ્રકૃતિનુ વેદન થાય ત્યારે ખીજી કેટલી ક`પ્રકૃતિના મધ થાય છે ? એવી રીતે જેમાં નિરૂપિત કરવામાં આવે છે તેને વેબધ કહેવામાં આવે છે. તે વેદબંધ પણ તેવી જ રીતે પ્રજ્ઞાપનામાં કહ્યા પ્રમાણે છે. આ વેદમધ પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના ૨૬માં પદમાં કહ્યો છે. તેનું પ્રકરણ આ પ્રમાણે છે. 66 कइ णं भंते! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ" हे भगवन् ! अति सी उही छे. " गोयमा ! अट्ठ कम्मपडीओ पण्णत्ताओ" हे गौतम! उर्भ अद्भुति माठ ईडी है. 'तं जहा णाणावरणिज्जं जाव अंतराइयं” ज्ञानावरणीयथी सर्ध ने अंतराय सुधीनी आहे अति उही छे, “ एवं नेरझ्याणं जाव बेमा 66 શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૨
SR No.006326
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 12 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages710
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size41 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy