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भगवतीसूत्रे
उपवाइए दढप्पइन्नवत्तव्यया सच्चेव बत्तव्यया निरवसेसा भाणियव्या जाव केवल बरनाणदसणे समुपन्जिहिई' एवं पूर्वोक्तरीत्या यथा औपपातिके दृढप्रतिज्ञवक्तव्यता उक्ता सा चैव वक्तव्यता अत्रापि निरवशेषा सर्वा भणितव्यावक्तव्या, यावत्-केवळवरज्ञानदर्शने समुत्पत्स्पेते 'तए णं से दढप्पइन्ने केवली अप्पणो तीयद्धं आमोएहिइ' ततः खलु स दृढप्रतिज्ञः केवली आत्मन:- स्वस्य, अतीतादाम्-भूतकालम् , आभोगयति-जानाति 'आभोएत्ता समणे निग्गंथे सदावेदिइ' आभोग्य-ज्ञात्वा श्रमणान् निर्ग्रन्थान् शब्दयिष्यति, आवयिष्यति, 'सहावित्ता एवं वदिहिइ' शब्दयित्वा-आहूय, एवं वक्ष्यमाणप्रकारेण, वदिष्यति 'एवं खलु अहं अज्नो ! इभो चिरातीयाए अद्वाए गोसाले नाम मंखलिपुत्ते होत्था, समगघाइए जाव छ उपत्थे चेत्र कालगए' भो आर्याः ! निग्रन्थाः ! में पुत्ररूप से उत्पन्न होगा। 'एवं जहा उववाहए दढप्पइनवत्तव्यया सच्चेव दत्तन्धया निरवसेसा भाणियन्वा जाव केवलवरनाणदंमणे समुप्पज्जित्था' पूर्वाक्त रूप से औपपातिक सूत्र में जैसी दृढ प्रतिज्ञ की वक्तव्यता कही गई है, वही वक्तव्यता यहां पर भी सम्पूर्ण रूप से कहनी चाहिये। यावत् केवल उत्तमज्ञान और केवलदर्शन इसे उत्पन्न होंगे। 'तए णं से दढपइन्ने केवलो अपणो तीयद्ध आभोएहिइ' तब वे दृढप्रतिज्ञ केवली अपने अतीत काल को भूतकाल को जानेगे। 'आभो. एत्ता समणे निग्गंथे सहावेहिइ' जानकर ऊसो समय वे श्रमण निर्ग्रन्थों को बुलावेंगे। 'सदायित्ता एवं वदिहिई' और बुलाकर उनसे इस प्रकार कहेंगे-'एवं खलु अहं अनो! इओ घिरातीयाए अद्धाए गोसाले नाम खलिपुत्ते होत्था, समवायए जाव छ मत्थे चेव काल. गए' हे आर्यों मैं निश्चय से असंख्याल व्यतीत हुए अद्धा काल में“ एवं जहा उसवाइए दढप्पइन्नवत्तब्धया सच्चेव वत्तवया निरवसेसं भाणियव्या जाव केवलवरनाणदंपणे समुप्पज्जित्था” पूर्वरित ३२ श्री५पाति सूत्रमा દઢપ્રતિજ્ઞના વિષે જે કથન કરવામાં આવ્યું છે, એજ કથન અહીં સંપૂર્ણ રૂપે કેવળ ઉત્તમ જ્ઞાન અને ઉત્તમ દર્શન તેને ઉત્પન્ન થશે” આ સૂત્રપાઠ ५ त ड ४२ न . " तए ण से दढपइन्ने केपली अपणो तीयद्धं आभाएहिइ" त्या३ ते १८५तिज्ञ वही पाताने। भूत शे. "आभो एत्ता समगे निग्गंथे सहावेहिइ" मोलाचीन मा प्रमाणे हेरी--" एवं खल अई अज्जो ! इभो चिरातीयाए श्रद्धाए गोसाले नामं मंखलिपुत्ते होत्था, समण. घायए जाव छ उमत्थे चेव कालाए " है माय! यिरातीत भा- यात
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧