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भगवतीसूत्रे मज्ञप्तम् ? भगवानाह-'गोयमा ! चउबिहे मणे पण्णत्ते' हे भदन्त ! चतुर्विधं मनः प्रज्ञप्तम् , ' तं जहा-सच्चे जाव असच्चामोसे ' तद्यथा-सत्यम् , यावद्मृषा, सत्यमृषा, असत्यामृषा चेति भावः । तथा चात्र मनः सूत्रं भाषा सूत्रधदेव फलितं केवलं मनोद्रव्यसमुदयो मननोपकारी मनः पर्याप्तिनामकर्मोदयसम्पायो विज्ञेयः भेदश्च तेषां विदलनमात्रम् ॥मू० २ ॥
कायवक्तव्यता। मूलम्- "आया भंते ! काये, अन्ने काये ? गोयमा! आयावि काये, अन्ने वि काये, रूवि भंते ! काये, अरूवि काये ? पुच्छा, गोयमा! रूवि पि काये, अरूवि पि काए, एवं एकेके पुच्छा, गोयमा! सचित्ते वि काये, अचित्ते वि काए, जीवे वि काए, अजीवे वि काए, जीवाण वि काए, अजीवाण वि काए, पुविं भंते ! काये पुच्छा, गोयमा ! पुचि पि काए, कायिज्जमाणे वि काए, काये समयवीतिकंते वि काये, पुड्विं भंते ! काये भिज्जति पुच्छा ? गोयमा ! पुवि पि काए भिज्जति, जाव काए में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! मणे चउबिहे पण्णत्ते' मन चार प्रकार का कहा गया है-'तं जहा' जो इस प्रकार से हैं-'सच्चे जाव असच्चामोसे' सत्य यावत्-मृषा, सत्यामृषा और असत्याभूषा, तथा च-यहां मनः सूत्र भाषासूत्र के अनुसार ही है ऐसा फलित होता है। मनन में उपकारी मनोद्रव्य समुदाय होता है और वह मनः पर्याप्ति नामकर्म के उदय से होता है । नो द्रव्यसमुदयों का विखर जाना यही इसका भेद है ॥ सू०२॥
मडावीर प्रभुना उत्त२-" गोयमा ! मणे चविहे पण्णत्ते-तंजहा" उ गौतम ! भनन नीचे प्रमाणे या२ ५२ ह्या है-" सच्चे जाव असच्चामोसे" (१) सत्यमान, (२) भृषामन, (3) सत्याभूषामन भने (४) અસત્યામૃષામન આ પ્રકારે મનઃસૂત્ર ભાષાસૂત્રના જેવું જ છે, એવું ફલિત થાય છે. મનનમાં મનદ્રવ્ય સમુદાય ઉપકારી થાય છે, અને મન:પર્યાપ્તિ નામકર્મના ઉદયથી તેની ઉત્પત્તિ થાય છે મનદ્રવ્યસમુદાયનું વિખરાઈ नवु, तेनु सहन सभा ॥१०॥
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧