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प्रमैयचन्द्रिका टीका श० १५ उ० १ ० २२ गोशालकगतिवर्णनम् ८५७ ताए उववज्जिहिइ' उत्कृष्टकालस्थितिके नरके-नरकावासे नैरयिकतया उत्पत्स्यते, 'से गं तोऽणंतरं उबट्टित्ता दोच्चंपि मच्छेसु उववज्निहिइ' स खलु विमलयाहनः ततः-सप्तमनरकात् अनन्तरम् उद्वृत्त्य द्वितीयमपि वारम् , मत्स्येषु उत्पत्स्यते, 'तत्थ विणं सत्थवज्झे जाव किचा छट्टीए तमार पुढवीए' तत्रापि खलु मत्स्यभवेषु शस्त्रवध्यः-शस्वधार्हः सन् यावत्-दाहव्युत्क्रान्त्या-दाहपीडया कालमासे कालं कृत्वा षष्ठयां तमायाम् पृथिव्याम् , 'उक्कोसकालट्ठियंसि नयंसि नेरइयत्ताए उवन्जिहि' उत्कृष्ट कालस्थितिके-उत्कृष्टकालस्थितियुक्त नरके नैरयिकतया उत्पत्स्यते; 'से णं तओहिंतो जाव उव्यट्टित्ता इत्थियासु उव. वज्जिहिइ' स खलु विमलवाहनः तस्मात् षष्टतमनरकात् यावत् अनन्तरम् उद्वृत्य स्त्रीषु उत्पत्स्यते, तत्थ वि णं सत्यवज्झे दाह जाव दोच्चंपि छट्ठीए तमाए वार भी अधःसप्तमी पृथिवी में 'उक्कोसकालहिइयंसि नरगंसि नेरइ. त्ताए उपवजिहिह' उत्कृष्टकाल की स्थितिवाले नरकावास में नैरयिकरूप से उत्पन्न होगा, 'से णं तमोऽणतरं उव्वट्टित्ता दोच्चपि मच्छेलु उववज्जिहिह' वहां से फिर वह विमलवाहन राजा अनन्तर समय में निकल कर दुबारा भी मत्स्यों में उत्पन्न होगा। 'तत्थ विणं सत्थवज्झे जाव किच्चा छट्ठीए तमाए पुढवीए' वहां पर भी वह शस्त्र. वधाहे होता हुआ दाह की पीडा से कालमास में काल करके छट्ठी तमा पृथिवी में "उक्कोस कालढिायंसि नरयसि नेरइयत्ताए उवज्जिहिइ' उत्कृष्ट काल की स्थितिवाले नरकावास में नारक की पर्याय से उत्पन्न होगा। ‘से णं तओहिंतो जाव उव्यट्टित्ता इस्थियासु उववनिहिइ' फिर वह विमलवाहन राजा उस छट्ठी पृथिवी से निकल कर अनन्तर समय में स्त्रियों में उत्पन्न होगा। 'तत्थ वि ण सस्थवज्झे दाह नरगीस नेरइत्ताए उववज्जिहिइ" ८ जनी स्थिति न२४ासमा ना२४ ३थे उत्पन्न थशे. " से णं तओऽणतरं उबवट्टित्ता दोच्चंपि मच्छेसु उववज्जिहिइ" त्यांना आयु, म भने स्थितिना क्षय यतi, त्यांथी नीजीन ते ३१ मस्यामा अत्यन्न थरी. “ तत्थ विणं सत्थवज्झे जाव किच्चा छडीए तमाए पुढवीए उक्कोसकाल ट्रिइयंसि नरयंसि नेरइयत्ताए उववन्जिहिह" त्यां ५५ તે શસ્ત્રવધાર્યું થઈને દાહની પીડાથી કાળને અવસરે કાળધર્મ પામીને છઠ્ઠી તમ:પ્રભા પૃથ્વીમાં ઉત્કૃષ્ટ કાળની સ્થિતિવાળા નરકાવાસમાં નારકની પર્યાયે उत्पन्न थ शे. " से णं तमोहितो जाव उध्वद्वित्ता हथियासु उववन्जिहिइ" ત્યાંના આયુ, ભવ અને સ્થિતિને ક્ષય થતાં, ત્યાંથી નીકળીને તે સ્ત્રી રૂપે
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧