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________________ ७९० भगवती सूत्रे यामपि प्रथमपदे मांसशब्दस्य फलमध्यवर्ति भागो 'गुदा' भाषामसिद्धोऽर्थो भणितः 'बेटं मांसकडाई एवाई दांति एगजीवस्स' इति, एकजीवस्य वृन्तं समांसकटाहम् - मांससहितम् ' गूदा सहितम्' तथा कटाहम् एतानि त्रीणि भवन्ति - एतानि त्रीणि एक जीवात्मकानि भवन्ति इति, वाग्भटे च फलस्य त्वमांसकेसराणां पृथगुपयोगदर्शनात् पृथगेवगुणाः 'स्वं तिक्तकटुका स्निग्धा मातुलुङ्गस्य वातजित् । बृहणं मधुरं मांस वातपित्तहरंगुरु' इति, अत्रापि मांसशब्दस्य फळगर्भे ' गूदा' इति भाषामसिद्धेऽर्थे प्रयोगः कृतः तथा च कुक्कुटमांसशब्देन प्रकृते कूष्माण्डफलगर्भरूपोऽर्थः सिद्धः । 1 अत्रे बोध्यम् - जैनधर्मस्य मूलतत्रमहिंसा वर्तते, अहिंसामूलकस्यैव जैनधर्मस्य एतावान् प्रसारः प्रचारो महत्वं वाद्यत्वे दरीदृश्यते, रेवती च जैनधर्मसंहिता है । प्रज्ञापना में भी प्रथम पद में मांस शब्द का फलमध्यवर्ती गूहरूप पदार्थ - ऐसा अर्थ लिया गया है। 'बेटं मांस कडाहं एवाई हवंति एगजीवस्त' एक जीव के 'वृन्त, मांससहित कटाह - गूदासहित काह' ये तीन होते हैं कहने का तात्पर्य यह है कि ये तीन एक जीवात्मक होते है । वाग्भट्ट में मातुलुङ्ग के है स्व-स्वक्, मांस और केसर के पृथगृपृथक उपयोग देखे जाने से अलग २ ही गुण कहे गये हैं- यहां पर भी मांस शब्द का प्रयोग फलगर्भरूप गदा इस भाषा प्रसिद्ध अर्थ में हुआ है, इस प्रकार कुक्कुट मांस शब्द से प्रकृत में बीजपूरक का फलगर्भरूप अर्थ लिया गया है ऐसा सिद्ध होता है। 66 यहां ऐसा समझना चाहिये - जैनधर्म का मूल तत्व अहिंसा है और इसी कारण इस अहिंसा मूलक जैनधर्म इतना प्रसार, प्रचार एवं महत्व इस काल में दिखलाई दे रहा है । रेवती जैनधर्म में अकाटय કરવામાં આવ્યા છે. પ્રજ્ઞાપના સૂત્રના પ્રથમ પદમાં પણ "भांस " शहना अर्थ " इजना मध्यवर्ती भाषा वा पार्थ" ४ ह्यो छे. बेंट मांस काहं एयाई हवंति एगजीवस्स " આ ત્રણ એક જીવાત્મક હાય છે વૃત્ત (सर) भांस (अडरना गर्भ) सहित उठाई (छाल) "वाग्भट्टमां मातुलु (मिलेरा)नी छात्र, गर्भ भने सरना हा हा शुभे। उद्या छे. अही પણ "भांस " शहने 'इजनी महरनो गर्भ', मा अर्थ मां वादवामां આવેલ છે, એવુ સિદ્ધ થાય છે. અહીં એવું સમજવુ જોઇએ કે જૈનધમ નુ' મૂળતત્ત્વ અહિંસા છે, અને તે કારણે જ આ અહિંસામૂલક જૈનધમ ના આટલે પ્રસાર, પ્રચાર અને મહત્ત્વ મા કાળમાં પણ જળવાઈ રહેલ છે. વતી જૈનધમ માં અટલ શ્રદ્ધાવાળી એક સન્નારી હતી, અને તે મહાવીર 66 શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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