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भगवती सूत्रे
अन्ना भासा ? ' हे भदन्त ! किम् भाषा आत्मा जीवः ? किं जीवस्वरूपा भाषा भवति ? यतो जीवेनैव भाषाया व्यापार्श्वमागतया तस्याच जीवस्यैव बन्धमोक्षार्थत्वेन जीवधर्मत्वाद् धर्मधर्मिणोरभेदेन सा 'जीव' इति व्यपदेशाह भवितुमर्हति ज्ञानवदिति किं वा अन्या भाषा ? न जीवस्वरूपा भाषा, तस्याः श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यतया मूर्तत्वेन आत्मनो भिन्नत्वादिति गौतमस्य प्रश्नः, भगवानाह - 'गोयमा ! नो आया भासा अन्ना भासा' हे गौतम! नो आत्मा भाषा, आत्मस्वरूपा भाषा न भवितुमर्हति तस्याः पुलस्यत्वात्, आत्मश्च निसृज्य
अन्ना मासा' हे भदन्त ! भाषा क्या आत्मास्वरूप है ? यह प्रश्न इसलिये इस रूप से किया गया है कि जीवद्वारा ही भाषा व्यापृत-उपव हृत होती है। बंध मोक्ष आदिकी व्यवस्था जीव इसी के द्वारा करता है - इसलिये यह जीव एक धर्मरूप पड जाता है । धर्म और धर्मी में भेद माना नहीं गया है। अतः इन दोनों में अभेद होने से भाषारूप धर्मजीव है ऐसा व्यपदेश हो सकता है । जैसा कि ज्ञान में 'ज्ञानजीव है' ऐसा व्यपदेश होता है । या भाषा जीवस्वरूप नहीं है ? इसका अभिप्राय ऐसा है कि भाषा श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होती है । अतः श्रोत्रेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य होने के कारण वह मूर्त रूपी है। इसलिये वह आत्मा जीव से भिन्न पड जाता है ? इसीलिये गौतमने ऐसा यह द्वितीय प्रश्न किया है । इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! नो आया भासा अन्नाभासा' हे गौतम! भाषा जीव स्वरूप नहीं है- क्योंकि वह भाषावर्गणाओं द्वारा निष्पन्न होती है-इस कारण वह पौङ्गलिक है ।
સ્વરૂપ છે ? કે આત્મસ્વરૂપ નથી ? આ પ્રશ્ન આ પ્રકારે પૂછવાનું કારણ એ છે કે-જીવ દ્વારા જ ભાષા વપરાય છે. બધ મેાક્ષ આદિની વ્યવસ્થા જીવ તેના દ્વારા જ કરે છે. તેથી તે જીવના એક ધરૂપ ગણાય છે ધમ અને ધર્મીમાં ભેદ માનવામાં આવ્યા નથી તે ખન્નેમાં અભેદ હાવાથી ભાષારૂપ धर्म व छे, मेव। व्यपदेश (वडेवार) थ
शडे छे. प्रेम " જ્ઞાનજીવ
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छे, ” मेव। व्यपदेश थाय छे. "शुद्ध भाषा वस्त्र३य नथी ?" या प्रश्ननुं તાત્પય આ પ્રમાણે છે--ભાષા શ્રેત્રેષ્ક્રિય દ્વારા ગ્રાહ્ય હેાય છે. તે કારણે તે भूर्त-३ची छे. तेथी शु' ते आत्मा (१) थी भिन्न जाली शाय जरी ? भडावीर अलुना उत्तर- " गोयमा ! नो आया भासा, अन्ना भासा ગૌતમ ! ભાષા જીવસ્વરૂપ નથી, કારણ કે તે ભાષાવગણુાઓ દ્વારા
" डे ઉત્પન્ન
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧