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________________ ६४२ भगवतीसूत्रे वचनः उद्घर्षयति-तिरस्करीति, कुलाधभिमानादधः पातयतीच, 'उद्धंसेत्ता, उच्चावयाहि निभंछगाहि निमंछेइ' उद्घय-पराभवसूचकवचनैस्तिरस्कृत्य, उच्चावचाभिः निर्भत्सनाभि-'नमम त्वया किमपि प्रयोजनमित्यादिभिः परुषवचनैः निर्भर्त्सयति-नितरां तर्जयति, 'निब्भन्छेत्ता, उच्चावयाहि निच्छोडणाहि निच्छोडेइ' निर्भत्स्य-संतमे, उच्चावचाभिः नि छोटनाभिः परित्यज तीर्थकरालंकारान्' इत्यादिभिः अपमानसूचकवचनैः निश्छोटयति-धिक्करोति 'निच्छोडेत्ता, एवं चयासी'-निश्छोटय-धिकृत्य, एवम्-वक्ष्यमाणपकारेण अवादी-निटेसि कयाइ, विणटेसि कयाइ, भट्टेसि कयाइ, नट्ठ-विणट-भट्टेसि कयाइ' त्वं नष्टोऽसि कदाचित्-स्वाचारनाशात् नष्टो भवसि, अहमेवं मन्ये यदुत नष्टस्त्वमसीत्यर्थः, त्वं विनष्टोऽसि मृतोऽसि कदाचित् इत्येवमहं मन्ये व भ्रष्टोऽसि-सम्पदो व्यपकरनेवाले वचनों से-तिरस्कार करने लगा। 'उद्धं सेत्ता उच्चावयाहिं निभंछणाहिं निम्भंछेइ' पराभव सूचक शब्दों से उनका तिरस्कार करके फिर वह-मुझे तुम से कुछ मतलष नहीं है । इत्यादि अयोग्य कठोरवचनों से उन्हें तर्जित करने लगा 'निम्भंछेत्ता उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडेइ तर्जना करके फिर वह 'तिर्थंकर के चिह्नों को तुम छोडो' इत्यादिरूप से अपमान सूचक अयोग्य शब्दों द्वारा उन्हें धिक्कार देने लगा। 'निच्छोडेत्ता' धिकार देकर फिर वह उनसे इस प्रकार बोला-'नठेसि कयाइ' विनद्धेसि कयाई' भटेसि कयाइ' नपिण, भट्टेसि कथाइ' तुम अपने आचार के नाश से नष्ट हुए हो अर्थात् मैं ऐसा मान रहा हूँ कि तुम नष्ट हो चुके हो, कदाचित् तुम मर चुके हो ऐसा मैं मानता हूं-और ऐसा भी मानता हूं कि तुम अपनी सम्पत्ति क्या 3 त तमना ति२२४१२ ४२१वाय. “ उद्धंसेत्ता उच्चावयाहि निभंगणाहिं निभंछेइ" ५२४१सूय शो 3 ति२२४२ ४ा पछी ते મારે તમારી સાથે કઈ પણ પ્રયજન નથી,” ઈત્યાદિ કઠોર વચને દ્વારા तभनी निसन ४२१॥ साय. " निब्भंछेत्ता उच्चावयाहिं निच्छोडणाहिं निच्छोडेइ" त्या२ मा “ त तिथ ४२न विहीन छ। हो," त्याहि ३२ अपमान सून्य अयोग्य । द्वारा मन पिक वाय. “निच्छो. डेता” मा प्रमाणे पिशाशन तणे तेमन 0 प्रमाणे ह्यु-" नटेसि कयाइ, विनट्रेसि कयाइ, भट्टेसि कयाइ, नद्रविणटभटेसि कयाइ" तभा। मायार નષ્ટ થવાને કારણે તમે નષ્ટ થઈ ચુક્યા છે, એટલે કે હું એવું માનું છું तमा। नाश थ युध्य छ, तमे भरी युध्या छ।, मेहु भानु છું, વળી હું એવું પણ માનું છું કે તમે તમારી સંપત્તિથી પણ રહિત શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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