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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १५ उ० १ सू० १२ गोशालकवृत्तान्तनिरूपणम् ६२५ संयूथे संयूथनाम निकायविशेषे देव उपपद्यते -जायते, 'सेणं तत्थ दिव्वाइ' भोग जाव चइत्ता छडे सन्निगन्भे जीवे पच्चायाई' स खलु जीव स्तत्र - अधस्तनमानसोत्तरे संयुथदेवभवे दिव्यान् भोग यावत् भोगान् भुञ्जानो विहरति, विहस्य तस्मात् देवलोकात् अनन्तरम् आयु क्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण चयं त्यक्त्वा षष्ठे संज्ञिगर्भे- पञ्चेन्द्रियमनुष्यभवे, जीवः प्रत्यायाति उत्पद्यते, 'से णं तथोहिंतो अनंतरं उत्ता मलोगे नाम से कप्पे पन्नत्ते' ख खलु जीव स्तेभ्यः - पष्ठ संज्ञिगर्भेभ्यः निर्गत्य अनन्तरम् उद्वृत्य- उद्वर्तनां कृत्वा ब्रह्मलोके कल्पे उपपद्यते इत्यग्रेण सम्बन्धः, ब्रह्मलोकस्वरूपं प्ररूपयितुं प्रथमं तत्कल्पमाह - ब्रह्मलोको नाम स कल्पः देवलोकः प्रज्ञप्तः, तत्स्वरूपाकारमाह- ' पाईणपडिणायए उदीर्णदाहिणवित्थिन्ने जहा ठाणपए जाव पंच बर्डेसगा पण्णत्ता' स ब्रह्मलोककल्पः माची उस पंचम पंचेन्द्रिय मनुष्यभव से उद्धर्तना करके अवस्तन मानुसोत्तर वाले संयूध नामक निकाय विशेष में देवरूप से उत्पन्न होता है 'से णं तत्थ दिव्वाई भोग जाब चहत्ता छट्ठे सन्निगन्भे जीवे पच्चायाइ' वह वहाँ - अधस्तन मानुसोत्तरवाले संयूथदेवभव में दिव्यभोगों को भोगता है फिर वह वहां से आयुभव और स्थिति के क्षय हो जाने के कारण शरीर को छोड़कर छठे संज्ञिगर्भ में - पञ्चेन्द्रियमनुष्य भवमें उत्पन्न होता है 'से णं तओहिंतो अनंतरं उव्वहित्ता बंभलोगे नाम से कप्पे पन्नत्ते' फिर वह जीव उस छडे पञ्चेन्द्रियभव से निकलकर अर्थात् उद्वर्त्तना कर ब्रह्मलोक कल्प में उत्पन्न होता है यह ब्रह्मलोक नाम का कल्प देवलोक 'पाईणपडीणायए, उदीर्णदाहिणवित्थिन्ने, जहा ठाणपए जाव पंचवडें सगा पण्णत्ता' पूर्वपश्चिम तक लम्बा है उत्तर
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माणमुत्तरे संजू हे देवे उववज्जइ ” તે જીવ તે પાંચમાં મનુષ્ય પચેન્દ્રિય ભવમાંથી ઉદ્ધૃત્તના કરીને અધ સ્તન મહાકલ્પપ્રમાણ આર્યુવાળા સથ નામના નિકાયવિશેષમાં દેવ રૂપે ઉત્પન્ન થાય છે. से णं तत्थ दिव्वाइं भोग जाव चइत्ता छुट्टे सन्निगन्भे जीवे पच्चायाइ " त्यां भविषप्रभाणु आज सुधी हिव्य ભાગભાગોને ભાગવીને, તે લવમાંથી આયુ, ભવ અને સ્થિતિના ક્ષય થવાને કારણે, તે દેવલાકમાંથી ચ્યવીને તે જીવ છઠ્ઠા સન્નિગ માં–પ'ચેન્દ્રિય મનુષ્યलवमां-उत्पन्न थाय छे. " से णं तओहिंतो अनंतरं उव्वट्टित्ता बंभलोगे नामं से कप्पे पन्नत्ते " त्यार मा छट्टा यथेन्द्रिय मनुष्यलवमांथी उद्धर्त्तना ने (મરીને) જીવ બ્રહ્મલાક કલ્પમાં ઉત્પન્ન થાય છે. તે ાલાક નામનું દેવલાક " पाईण पडीणायप, उदीणदाहिणवित्थिन्ने, जहा ठाणपए जाव पंच वडेंसगा पण्णत्ता પૂર્વ પશ્ચિમ સુધી લાંબું અને ઉત્તરદક્ષિણ સુધી વિસ્તૃત છે. પ્રજ્ઞા
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શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧