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प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १५० १ सू० १२ गोशालक वृत्तान्तनिरूपणम् ६२३ पञ्चायाई' स खलु जीवस्तत्र - अधस्तनमान से सय्यदेवभवे दिव्यान् यावत्-भोग भोगान् भुञ्जानो विहरति विहृत्य तस्माद् देवलोकात् आयुःक्षयेण भवक्षयेण स्थितिक्षयेण अनन्तरं चयं त्यक्त्वा तृतीये संज्ञिगर्भे- पश्चेन्द्रियमनुष्ये जीवः प्रत्यायाति - उत्पद्यते, 'से णं तओहिंतो जाव उबहित्ता उवरिल्ले माणुसुत्तरे संजु देवे उववज्जिहिर' स खलु जीवस्तस्माद्यावत् संज्ञिगर्भात् अनन्तरम् उदस्य - उद्वर्तनां कृत्वा, उपरितने मानसोत्तरे महामानसे प्रागुक्तमहाकल्पममितायुष्ययुक्त, संयुथे- संयूथनामकनिकायविशेषे देव उपपरस्यते - जनिष्यते, ' से णं तत्थ दिव्वाई' भोग जाव चइता चउत्थे सन्निगभे जीवे पच्चायाइ' स खलु जीवस्तत्र मानसोसरे संयूथे देवनिकाये, दिव्यान् भोग यावत् भोगान् भुञ्जानो विहरति, संयूथों में चार संयूथ होते हैं और तीन देवभव है।ते हैं । 'से णं तत्थ दिव्वाई जाव चइता तच्चे सन्निगन्भे जीवे पच्चायाइ' वह जीव उस अधस्तनमानसवाले संयूधदेवभव में दिव्य भोगभोगों को भोगता है। वहां के दिव्य भोग भोगों का भोगकर वह उस देवलोक से आयु के क्षय है। जाने के कारण, भव के क्षय हो जाने कारण और स्थिति के क्षय हो जाने कारण शरीर के छोडकर तृतीय संज्ञिगर्भ में पंचेन्द्रिय मनुष्य में उत्पन्न होता है। 'से णं तओहिंतो जाव उब्वहिता उवरल्लेि माणुसुत्तरे संजू हे देवे उववज्जिहिई' अब यह जीव वहां से यावत् उदर्त्तना करके उपरितन महामानस वाले महाकल्पप्रमित आयु वालेसंयूथ नामक निकाय विशेष में देवरूप से उत्पन्न होता है 'से णं तस्थ दिव्वाई भोग जाब चइत्ता चउत्थे सभिगन्भे जीवे पच्चायाइ' वह जीव महाकल्प प्रमित आयु वाले उस देवनिकाय में दिव्य भोग भोगों
“ से णं तत्थ दिव्वाइं जाव चइत्ता तच्चे सम्निगभे जीवे पञ्चायाइ " ते ७ તે અધસ્તન માનસવાળા સયૂથદેવભવમાં દિવ્ય ભાગલાગે ભાગવે છે. ત્યાંના દિવ્ય ભાગલાગેાને ભાગવીને, તે દેવલાકમાંથી આયુના ક્ષય થઈ જવાને કારણે, ભવના ક્ષય થઈ જવાને કારણે, સ્થિતિના ક્ષય થઈ જવાને કારણે, શરીરને એડીને ત્રીજા સજ્ઞિગભમાં—પચેન્દ્રિય મનુષ્યભવમાં ઉત્પન્ન થાય છે. " से णं तओहिंतो जाव उव्वट्टित्ता उवरिल्ले माणसुत्तरे संजूहे देवे उववज्जहिइ" હવે તે જીવ ત્યાંથી ઉદ્ધૃત્તના કરીને ઉપરિતન મહામાનસવાળા (મહાકલ્પપ્રમાણ આચુવાળા) સયૂથ નામના નિકાયવિશેષમાં ઉત્પન્ન થાય છે. 66 से णं तत्थ दिव्वाई भोग जाव चइत्ता चउत्थे सन्निगब्भे जीवे पच्चायाइ " ते व મહાકલ્પપ્રમાણ આયુવાળા તે દેવનિકાયમાં દિવ્ય ભાગભેગાને ભાગવે છે.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧