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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १५ उ०१ सू० ५ गोशालकवृत्तान्तनिरूपणम् ५१७ बालतवस्सि एवं वयासी'-तत्रैव उपागत्य वेश्यायनं बालतपस्विनम् एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण, आदीत-'किं भवं मुगी, मुणिए, उदाहु जूयासेज्जायरए ?' । कि भवान् मुनिः-तपस्वी संजातः ? ज्ञाते तत्त्वे सति, अथवा किं भवान् मुनिः यतिः, आहोस्वित्-मुनिका-कुत्सितो मुनिः प्रहगृहीतः अस्ति ?, उताहो यूकाशय्यातरकः यूकानां स्थानदाता अस्ति ? 'तए णं से वेसियायणे बालतवस्ती गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स एयमह्र णो आहाइ, णो परिजाणाइ तुसिणीए संचिट्ठ' ततः खलु स वेश्यायनो बालतपस्वी गोशालस्य मंखलिपुत्रस्य एतमर्थ-पूर्वोक्तार्थ नो आद्रियतेआदरदृष्टया नो शृगोति, नो वा परिजानाति-सम्यक्त्वेन निश्चिनोति, अपितु तूष्णींमौनं यथास्यात्तथा संतिष्ठते, 'तएणं से गोसाले मंखलिपुत्ते वेसियायणं वालतवस्सि दोच्चपि तच्चपि एवं वयासी'-ततः खलु स गोशालो मंखलिपुत्रो वेश्यायनं यणं पालतवस्सि एवं क्यासी' वहां पहुंचकर उसने उस घालतपस्वी वेश्यायन से इस प्रकार कहा-'किं भवं मुणी, मुणिए, उदाहु जूयासेन्जा. यरए' क्या आप तत्त्व के जान लेने पर मुनि हुए हो-तपस्वी हुए हो, अथवा आप मुनि-यति हुए हो, या मुनिक-कुत्सितमुनि हो-ग्रह से गृहीत हो या यूकाशय्यातरक-यूकायों के शय्यातर हो ? 'तए णं से वेसियायणे पालतवस्सी गोसालस्स मंखलिपुत्तस्त एयम8 णो आढाइ, णो परिजाणाइ तुसिणीए संचिट्ठह' मंखलिपुत्र गोशाल के इस प्रकार वचन सुनकर उस बालतपस्वी वेश्यायन ने उससे प्रत्युत्तर में कुछ नहीं कहा क्योंकि गोशालक के इस वचन को उसने आदर की दृष्टि से नहीं देखा, और न उस पर कुछ ध्यान ही दिया केवल जैसा बैठा था वैसा ही चुपचाप बैठा रहा। 'तए णं से गोसाले मखलिपुत्ते वेसिउवागच्छित्ता वेसियायणं बालतवस्सिं एवं वयासी" क्या ५inी १४२ तेरे ते वेश्यायन मासतपस्वी२ प्रमाणे धु-" कि भवं मुणी, मुणिए, उदाहु जूयासेज्जायरए'' शुमा५ तन न भुनि-तपस्वी च्या छ।, અથવા આપ શું યતિ-મુનિ છે ? કે મુનિક-કુત્સિત મુનિ છો–શું આપ थी गडीत छ ? है (मानुं शय्यात२ (शयनयान) छ। १ "तए णं से वेसियायणे बालतवस्ती गोसालस्स मंखलिपुत्तस्त एयम णो आढाइ, णो परिजाणइ तुसिणीए संचिट्टइ” म मलिपुत्र गोशान घानां क्या સંભળીને તે બ લતપસ્વી વેશ્યાયને તેને પ્રત્યુત્તર રૂપે કંઈ પણ કહ્યું નહીં તેનાં વચને પ્રત્યે આદરની નજરે જોયું નહીં અને તેના ઉપર ધ્યાન જ ન धु. ते पाताने स्थाने युपया५ मेसी रह्यो, “तएणं से गोसाले मंखलिपुत्त શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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