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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १३ उ० ६ सू० ३ उदायनराजचरितनिरूपणम् ३९ 9 3 , एकः पुत्रः इष्टः मनसोऽनुकूलः, कान्तः यावत् प्रियो- मनोज्ञः, मनोऽमः वर्तते, तत् यथा उदुम्बरपुष्पमित्र दुर्लभं तथा तस्य दर्शनं दुर्लभमिति ? ' तं जणं अहं अभयकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता जात्र पत्रयामि तो णं अभीयिकुमारे रज्जेय जाव जणवए माणुस्सएस य कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंत संसारकंतारं अणुपरिय हिस्सर' तत् यदि खलु अहम् अभीतिकुमारं राज्ये स्थापयित्वा श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके - समीपे, मुण्डो भूत्वा यावत् आगाराद् अनगारितां प्रव्रजामि-दीक्षां गृह्णामि, तथा खलु अभीतिकुमारी राज्ये च यावद राष्ट्रे च, जनपदे, मानुष्यकेषु च कामभोगेषु मूच्छितः, गृद्धः - गृद्धियुक्त" प्रथितः आसक्तः, अध्युपपन्नः - तल्लीनः सन् अनादिकम् - आदिरहितम्, अनवदग्रम् - अनन्तम् दीर्घाध्वानं दीर्घौऽध्वा यस्य तम् चातुरन्तं चतुर्गतिकं, संसारदी अधिक इष्ट, कान्त एवं यावत् प्रिय, मनोज्ञ, और मनोऽम है तो जैसे गूलर का पुष्प दुर्लभ होता है-वैसा ही यह मुझे दुर्लभ है। इसके दर्शन होने की तो बात ही क्या कहनी 'तं जड़ णं अहं अभीषिकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवभो महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामि, तो णं अभीयिकुमारे रज्जे य जाव जणवए माणुस्सएस य कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोवबन्ने' अब यदि मैं अभीतिकुमार को राज्य में स्थापित कर श्रमण भगवान् महावीर के पास मुंडित होकर दीक्षित हो जाता हूं, तो वह अभीजितकुमार राज्य में यावत् - राष्ट्र में जनपद में, मनुष्य संबंधी कामभोगों में मूर्छित होता हुआ, गृद्ध होता हुआ आसक्त होता हुआ और अभ्युपपन्न - तल्लीन होता हुआ आदि अन्तरहित, दीर्घमार्गवाले, इस चतुर्गतिरूप संसाराटवी में , पुत्र, ते भने भूमष्टि, अन्त, प्रिय, मनोज्ञ भने मनोहर लागे छे. જેમ ગૂલરનુ પુષ્પ દુલભ હાય છે, એમ જ તે મારે માટે દુલભ હતા तेनां दर्शननी तो वातशी ४२वी ! " तं जइ णं अहं अभीयिकुमारं रज्जे ठाdaraमणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पव्वयामि, तोणं अभयकुमारे रज्जेय जाव जणवर माणुस्वएसु य कामभोगेसु मुच्छिए गिद्धे गढिए अज्झोव ने " ले डु' भलीतिकुमारने राज्यशाही से मेसाडीने भगवान મહાવીરની પાસે સુ'ડીત થઈને દીક્ષા અંગીકાર કરીશ, તેા અભીતિકુમાર રાજ્યમાં, રાષ્ટ્રમાં અને જનપદ્મમાં મનુષ્યસંબધી કામાગામાં મૂર્છાિત (आस) थाने, गृद्ध (सावसायुक्त) यह ने, आसउत थर्धने भने ते अभ ભેાગામાં તલ્લીન થઈ જઈને અનન્ત, દ્વીધ માગવાળા આ ચાર ગતિ રૂપ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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