SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 497
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रमैयचन्द्रिका टीका श० १५ उ० १ सू० ३ गोशालकवृत्तान्तनिरूपणम् ४८३ तद्यथा तानि यथा-'वसुधारा बुट्टा १, दसवण्णे कुसुमे निवाइए २, चेलुक्खेवे कए ३, आहयाओ देवदुंदुहीओ ४, अंतरावि य णं आगासे अहोदाणे अहोदाणे ति घुढे ३' वसुधारा द्रव्यरूपा वृष्टा १,दशार्द्धवर्णम्-पश्चवर्णम् , कुमुमं-पुष्पं निपातितम् वर्षितम् २, चैलोरक्षेपः कृतः वस्त्रं वृष्टम् वस्त्राणं वर्षा कृता ३, आहताः-वादिताः, देवदुन्दुभयः देवसम्बन्धिवाद्यविशेषाः ४, अन्तरापि च खलु आकाशे-गगनमध्ये इत्यर्थः, अहो -आश्चयं दानं विजयस्येति, घुष्टम्-घोषणा कृता देवैरिति ५, 'तए णं रायगिहे नयरे सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एचमाइक्खइ, जाव एवं परूवेई' -ततः खलु राजगृहे नगरे शृङ्गाटक यावत् त्रिकचतुष्कचत्वरमहापथपथेषु बहुजनोऽन्योन्यस्य परस्परम् एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण, आख्याति, यावत्-भापते, उत्पन्न हुए 'तं जहा' जैसे-'वसुधारा बुट्ठा १, दसवण्णे कुसुमे निवाइए २, चेलुक्खेवेकए ३, आहयाओ देवदुंदुहीओ, अंतरा वि य णं आमासे अहोदणे अहो दाणे त्ति घुट्टे' वसुधारा-द्रव्य की वर्षा हुई, पांच वर्ण के पुष्प गिराये गये, अर्थात् बरसे, वस्त्रों की वर्षा हुई, देवसम्बन्धी बाजे बजे और आकाश के बीच 'देवों ने विजय का दान आश्चर्यकारण है, 'इस प्रकार से विजय गाथापति के दान की सराहना की-घोषणा की 'तए णं रायगिहे नयरे सिंघाडग जाय पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खह, जाच एवं परूवेइ' तब राजगृहनगर में शृंगाटक यावत् त्रिक, चतुष्क, चत्वर महापथ एवं पथ इन सब रास्तों पर अनेक मनुष्य आपस में इस प्रकार कहने लगे, यावत् प्ररूपित करने लगे-यहां यावत् शब्द से 'भाषते, प्रज्ञापयति' इन क्रियापदों का अध्याहार हुआ है " तंजहा" ते हव्यानi नाम ॥ प्रमाणे समा . “वसुधारावुढा १, दसद्धवण्णे कुसुमे निवाइए२, चेलुक्खेवेकए३- आहयाओ देवदुंदुहीओ४, अतरा वि य ण आगासे अहोदाणे अहोदाणे त्ति घुटे” (१) वसुधारा-द्रव्यनी वृष्टि-थ, (२) पांय १e मा योनी वृष्टि ५४, (3) सोनी वृष्टि थ६, (४) बलिદેનાં વાંજિત્રો-વાગ્યાં (૫) અને આકાશમાં રહેલા દેવોએ આ પ્રકારે ઘેષણ કરીને વિજય ગાથા પતિના દાનના વખાણ કર્યા. “વિજય દ્વારા मर्पित थयेहान अद्भुत छ," " तए णं रायगिहे नयरे सिंघाडग जाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ" त्यारे २००४ નગરના શૃંગાટક, ત્રિક, ચતુક, ચત્વર મહાપથ અને પથ, આ સઘળા માર્ગો પર ભેગા થઈને અનેક લેકે એક બીજાને આ પ્રમાણે કહેવા લાગ્યા, પ્રજ્ઞાપિત શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy