SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 474
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवतीसूत्र जिनो जिनालापी, यावत्-अर्हन् अर्हत्सलापी, केवली केवलिपलापी, सर्वज्ञः सर्वज्ञमलापी, जिनो जिनशब्दं प्रकाशयन् विहरति, इति, तत् खलु पूर्वोक्तं सर्व मिथ्याअसत्यं वर्तते, 'अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि' हे गौतम ! अहं खलु एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण उत्थानवृत्तान्तम् आख्यामि, यावत्-भाषे, प्रज्ञापयामि, प्ररूपयामि, 'एवं खलु एयस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मंखलिनामं मंखे पिया होत्था' एवं खलु-निश्चयेन, एतस्य गोशालस्य मङ्खलिपुत्रस्य मङ्खलिः नामा मंखः-चित्रफलकगृहीतहस्तो चित्रफलकं दर्शयित्वा भिक्षायाचकः भिक्षुक मंखलिपुत्र गोशालक जिन है और वह स्वयं को भी जिन कहता है, अर्हन्त है और वह स्वयं को भी अर्हन्त कहता है, केवली है, और वह स्वयं को भी केवली कहता है, सर्वज्ञ है और वह स्वयं को भी सर्वज्ञ कहता है, जिन है और वह जिन शब्द का प्रकाश करता है सो ऐसा यह पूर्वोक्त उनका कथन सब मिथ्या है । 'अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि, जाव पख्वेमि' हे गौतम ! मैं तो इस विषय में ऐसा कहताहूं, यावत् प्ररूपित करता हूं। 'एवं खलु एयस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मंखलिनाम मंखे पिया होत्था' इस गोशाल का पिता मंखलि था यह मंख जाति का था इस ज्ञाति में चित्रपट हाथ में रखकर और उसे दिखाकर भिक्षावृत्ति की जाति है अर्थात् गोशाल का पिता भिक्षुकों की विशेष जाती में उत्पन्न हुभा एक भिक्षुक था, गोशालक मंखलि से उत्पन्न होने के कारण मंखलिपुत्र कहलाता था। માનતો થકે તે પિતાની જાતને જિન કહે છે, અહત માનતે થકે પિતાને અહંત રૂપે જ ગણાવે છે, કેવલી માનતે થકે પિતાને કેવલીરૂપે કહે છે, સર્વજ્ઞ માનત થકે પોતાને સર્વજ્ઞ રૂપે કહે છે, જિન માનતે થકે જિન શબ્દને हो ४२ छ," मा तभन ४थन भिथ्या-मसत्य । छ. " एव खलु गोयमा! एवमाइक्खामि, जाव परूवेमि" 3 गौतम ! या विषयमा हुतो ये ४ छु, मे प्रतिपादन ४२ छु, मेनु प्रज्ञापित ४३ छु भने मे ५३पित ४३ छु. 3-“ एवं खलु एयस्स गोसालस्स मंखलिपुत्तस्स मंखलि नाम' मंखे पिया होत्था" | गोसन पिता भलि ता-त। म मलि जतिना હતા. આ જાતિ ચિત્રપટ હાથમાં લઈને અને લોકોને તે બતાવીને ભિક્ષાવૃત્તિ દ્વારા પિતાને નિર્વાદુ ચલાવે છે. એટલે કે શાલકનો પિતા ભિક્ષક જાતિ વિશેષમાં ઉત્પન્ન થયેલે એક ભિક્ષુક જ હતું. આ મંખલિને ત્યાં ગશાળક જન્મ્યા હતા, તેથી તેને મંખલિપુત્રને નામે પણ ઓળખવામાં આવતે શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy