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भगवतीसूत्रे शिलाखण्डादिना गन्धद्रव्यादिकमिव पुरुषस्य शीर्ष कमण्डलो प्रक्षिपेत् , 'तओपच्छा खिप्पामेव पडिसंघाएज्जा' ततः पश्चात् कमण्डलौ प्रक्षेपानन्तरम् , क्षिपमेव मस्तकावयवान् प्रतिसंघातयेत्-मेलयेत्-संयोजयेदित्यर्थः, किन्तु 'नो चेवणं तस्स पुरिसस्प्त किंचि आबाई वा वाबाहं वा उप्पाएज्जा' नो चैव खलु तस्य पुरुषस्य किश्चिदपि आबाधां वा ईषत्पीडां चा, व्यावाधां वा-विशेषपीडां वा उत्पादयेत् यद्येवं तहिं तस्य पुरुषस्य शरीरच्छेदं शको न करोति इति न किन्तु पुनः 'छविच्छेदं पुणकरेइ' छविच्छेद-शरीरच्छेदं पुनः करोति, 'ए सुहुमं च णं पक्खिवेज्जा इयत्सूक्ष्मम् इत्येवं रीत्या सूक्ष्म यथास्यात्तथा कमण्डलौ प्रक्षिपेत् देवशक्तिवैचित्र्येण क्षिप्रकारित्वात् येन न कथमपि तस्य पुरुषस्य पीडा मुल्पादयेदिति ॥ सू० ६॥ वेजा जिस प्रकार पत्थर पर कोई चीज लोढी' आदि में पीसी जाती है, उसी प्रकार से उसे पीस २ कर वह उसको कमण्डल में रख सकता है । 'तओ पच्छा खिप्पामेव पडिसंघाएज्जा' कमण्डलु में रखने के बाद वह बहुत ही जल्दी उस मस्तक के अवयवों को आपस में मिला देता है। 'नो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आवाहं वा वावाह था उप्पाएज्जा' परन्तु इस सब हालत में वह उस पुरुष को न थोड़ी सी भी पीडा उत्पन्न होने देता है और न विशेष पीड़ा भी उत्पन्न होने देता है। यदि ऐसा है तो शक्र उस पुरुष का शरीर छेद नहीं करता होगा, ऐसा नहीं किन्तु 'छविछेयं पुण करेइ' उसके शरीर का छेदन तो जरूर करता है, परन्तु वह इतनी सूक्ष्मतासे बहुत ही अधिक हाथ की सफाई के साथ देवशक्ति की विचित्रता को लेकर शीघ्र वह शक्र पुरुष के मस्तक को कमंडलु में रख देता है। इसी कारण उस पुरुष को थोडी सी भी पीडा नहीं हो पाती है। सू०६॥ सोसाटीने ५५५ शन्द्रत भउमा भूडीश छ. " तो पच्छाखि. प्पामेव पडिसंघाएज्जा" मारीत भमा भू४या मा uplor - પથી દેવેન્દ્ર દેવરાય શકે તે મસ્તકના અવય જોડી દઈને ફરી તે મસ્તકને त पुरुषमा शरी२ सा न ४ छ. “नो चेव णं तस्य पुरिसस्स किंचि आबाहं या वाबाहं वा उप्पाएज्जा" माम ४२१। छतi ५ ते पुरुषने વિશેષ તો શું પણ સહેજ પણ તેને પીડા થવા દેતો નથી, જે એવું હોય તે શકે તે પુરુષના શરીરનું છેદન નહિ કર્યું હોય, એમ નહિ સમજવું Sन्तु “ छविच्छेयं पुण करेइ” AN२नु छन तो ४३ ४, ५५ मारी સૂક્ષ્મતાથી ખૂબ જ હાથ ચાલાકિપૂર્વક પિતાની દિવ્ય દેવશકિતને, કારણે શીઘ્રતાથી તે શક્ર પુરુષના માથાને કમંડલુંમાં નાખી દે છે. એ જ કારણે તે પુરુષને સહેજ પણ પીડા થતી નથી. સૂ૦૬
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧