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________________ भगवतीस्त्रे मासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिइ, कहिं उववज्जिहिइ ? ' गौतमः पृच्छतिहे भदन्त ! एष खलु शालवृक्षः-शालनामको वृक्षविशेषः उष्णाभिहतः-रवितापा घातं प्राप्ता, पाभिहता-पिपासाघातं पाप्तः, दावाग्मिजालाभिहतःदावानलज्यालादग्धः सन् कालमासे-मरणावसरे कालं कृत्वा-मरणधर्म प्राप्य कुत्र गमिष्यति ? कुत्र उत्पत्स्यते-जनिष्यते ? भगवानाह-'गोयमा ! इहेव रायगिहे नयरे सालरुक् खत्ताए पच्चायाहिइ' हे गौतम । इहैव अत्रैव स्थळे राजगृहे नगरे स शालवृक्षः कालमासे कालं कृत्वा शालयक्षतया प्रत्यायास्यतिपुनरुत्पत्स्यते ' से णं तत्थ अच्चियवंदियपूइयसकारियसम्मणिए दिव्वे सच्चे सच्चोवार सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहिए यावि भविस्सइ' स खलु शालवृक्षस्तत्र-राजगृहे नगरे अचितवन्दितपूजितसत्कारितसम्मानितो उण्हाभिहए, ताहाभिहए, दवग्गिजालाभिहए कालमासे कालं किचा, कहिंगच्छिहिह, कहिं उववजिहिइ' हे भदन्त ! यह शाल नाम का वृक्ष जो सूर्य के ताप के आघात को सहन करता रहता है । पिपासा की पाधा को सहता रहता है। और दावानल की लपटों से समय २ पर दग्ध होता रहता है कालमास में काल कर कहां जावेगा ? कहां उत्पन्न होगा ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा ! इहेव रायगिहे नयरे सालरुक्खत्ताए पच्चायाहिइ' हे गौतम ! वह शाल नाम का वृक्ष इसी राजगृह नगर में, मर कर पुन:शाल वृक्षरूप से ही उत्पन्न होगा। 'से णं तस्थ अचिय-वंदियाय-सकारिय-सम्माणिए दिव्वे सच्चे, सचोवाए, सन्निवाहियपाडिहेरे, लाउल्लोइयमहिए यावि भविस्सई' वह वहां पर अर्चित, वन्दित, पूजित, सत्कारित, सन्मानित होकर दिव्य पूछे छ -“एस णं भंते ! सालहक्खे उहाभिहए, तहाभिहए, दवग्गिजालाभिहए कालमासे कालं किच्चा, कहिं गच्छिहिह, कहि उववजिहिइ ?" . વન ! આ શાલ નામનું વૃક્ષ કે જે સૂર્યના તાપના આઘાતને સહન કરે છે, પિપાસાની મુશ્કેલીને પણ સહન કર્યા કરે છે અને દાવાનલની જવા ળાઓ વડે વારંવાર બળતું રહે છે, તે કાળને અવસર આવે કાળ કરીને કયાં જશે ? કયાં ઉત્પન્ન થશે? ___ महावीर प्रभुने। उत्तर-" गोयमा ! इहेव रायगिहे नयरे सालरुक्खत्ताए पच्चायाहिइ" गौतम ! म शासवृक्ष भरीने मा २१ नाम । ५१ सवृक्ष ३२ ५न्न थरी. “से णं तत्थ अच्चिय, वंदिय, पूइय, सकारिय, सम्माणिए दिव्वे, सच्चे, सच्चोबाए सन्निहियपाडिहेरे, लाउल्लोइयमहिए यावि भविस्सइ" ते त्यां a द्वारा मर्थित, पन्डित, कित, सारित भने શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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