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प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१४ उ०६ सू० ३ वैमानिकदेवकामभोगनिरूपणम् २९९ दङ्गप्रत्युत्पादितरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरति-तिष्ठति, गौतमः पृच्छति-'जाहे ईसाणे देविंदे देवराया दिव्बाई०' हे भदन्त ! यदा ईशानो देवेन्द्रो देवराजो दिव्यान् भोगभोगान् भोक्तुकामो भवति स कथं तावत् तदानीं दिव्यान् भोगभोगान् भोक्तुं प्रवर्तते ? इतिप्रश्नः। भनवानाह-'जहा सके तहा ईसाणे विनिरवसेस, एवं सणंकुमारे वि हे गौतम ! यथा शक्रः पूर्व दिव्यान् भोगभोगान् भोक्तुकामो नेमिप्रतिरूपकस्थाने प्रासादातंसकम्, मणिपाठिकाम्, देवशयनीयं च विकृवित्वा अष्टाग्रमहिष्यादिभिः सह दिव्यान् भोगमोगान् भुञ्जानो विहरति, तथैव ईशानोऽपि देवेन्द्रो देवराजो दिव्यान् भोगभोगान् मोक्तु त्रुटिक एवं धन मृदङ्गों की तुमुलध्वनिपूर्वक दिव्य भोगभोगों को भोगता है। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'जाहे ईसाणे देविंदे देवराया दिव्याई' हे भदन्त ! जिस समय देवेन्द्र देवराजा ईशान दिव्य भोग. भोगों को भोगने का अभिलाषी होता है, तब वह किस प्रकार से उन्हें भोगता है ? इस प्रश्न के उत्तर में प्रभु कहते हैं-'जहा सके तहा ईसाणे वि निरवसेसं, एवं सणंकुमारे वि' हे गौतम ! जिस प्रकार वर्णित शक्र जब दिव्य भोग भोगों को भोगने का अभिलाषी होता है, तब वह नेमिप्रतिरूपक स्थान में प्रासादावतंसक की, मणिपीठिका की और देवशय. नीय की विकुर्वणा करता है और विकुर्वणा करके वह आठ अग्रमहि षियों के साथ दिव्यभोगभोगों को भोगता है, उसी प्रकार से देवेन्द्र देवराज ईशान भी जब दिव्यभोगभोगों को भोगने का अभिलाषी होता है तब नेमिप्रतिरूपकचक्र के जैसे गोल स्थान विशेष की, प्रासाવાજિંત્રના તથા તંત્રી, તાલ, ત્રુટિક, અને ઘનમૃદંગના તુમુલવનિપૂર્વક દિવ્ય ભેગોગોને ભોગવે છે. હવે ગૌતમ સ્વામી એ પ્રશ્ન પૂછે છે કે"जाहे ईसाणे देविदे देवराया दिव्वाइं०" उ मगन् ! न्यारे हेवेन्द्र, ११. રાય ઈશાનને દિવ્ય ભોગભેગો ભેગવવાની ઈચ્છા થાય છે, ત્યારે કેવી રીતે તે તેને ભોગવે છે?
मडावीर प्रभुना उत्त२-" जहा सक्के तहा ईसाणे वि निरवसेसं, एवं सणंकुमारे वि" गौतम! म हेवेन्द्र देवरा०४ २४ क्यारे नगलागाने ભેગવવાની ઈચ્છા થાય છે, ત્યારે નેમિપ્રતિરૂપક સ્થાનમાં ઉત્તમ પ્રાસાદની અંદર મણિપીઠિકા પરની દેવશય્યાની વિકર્ષણ કરીને આઠ અગ્રમહિષીઓ આદિની સાથે દિવ્ય ભેગોને ભેગવે છે, એજ પ્રમાણે જ્યારે દેવેન્દ્ર દેવરાજ ઈશાનને ભેગનેને ભેગવવાની ઈચ્છા થાય છે, ત્યારે ચકાકાર
શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧