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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १४ उ० २ सू० १ उन्मादस्वरूपनिरूपणम् १८३ मोहणिज्जस्स कम्मस्स उदएणं, से णं दुहवेयणतराए चेव, दुहविमोयणतराए चेत्र' तत्र-तयोरुपयुक्तोन्मादयोमध्ये यः स मोहनीयस्य कर्मण उदयेन उन्माद उत्पन्नः स खलु मोहजन्योन्मादः यक्षावेशापेक्षया दुःखवेदनतरकश्चैव अतिशयेन दुःखेन वेदनम्-अनुभवनं यस्यासौ दुःख वेदनतरः स एव दुःखवेदनतरकश्चैव भवति, अनन्तसंसारसम्पादकत्वात् , संसारस्य च दुःखवेदनस्वभावस्वात् , यक्षावेशरूपोन्मादस्तु सुखवेदनतर एव भवति, एकमविकत्वात् , अथ च मोहजन्योन्मादोऽन्यापेक्षया दुःखविमोचनतरकश्चैव-अतिशयेन दुःखेन विमोचनं यस्य स एव दुःखविमोचनतरकश्चैव भवति, विद्यामन्त्रतन्त्रदेवानुकम्पावतामपि तस्या साध्यत्वात् , यक्षावेशरूपोन्मादस्तु मुखविमोचनतर एव भवति मन्त्रादिमात्रेणापि तस्य द्रीकर्तुं शक्यत्वात्, कम्मरस उदएणं से णं दुहवेयणतराए चेव, दुहविमोयणतराए चेव' किन्तु जो मोहनीय कर्म के उदय से उन्माद होता है-वह यक्षावेशरूप उन्माद की अपेक्षा अतिशय दुःख से है वेदन जिस का ऐसा होता हैतथा अतिशय दुःख से है छुटकारा जिससे ऐसा होता है। क्योंकि यह मोहनीय कर्मजन्य उन्माद अनन्तसंसार का हेतु होता है और संसार जो है वह दुःख का वेदन है जिसमें ऐसे स्वभाववाला होता है। तथा यक्षावेशरूप जो उन्माद, है, वह सुख वेदनतर होता है-सो इस कारण ऐसा है कि यह उन्माद एकभविक होता है। तथा मोहजन्य जो उन्माद है वह इसकी अपेक्षा अतिशय दुःख से है छुटकारा जिसका ऐसा ही होता है। क्योंकि विद्यावालों एवं मंत्रवालों, तन्त्रवालों एवं देवों की अनुकम्पावालों का भी यह उन्माद असाध्य होता है। णिज्जस्व कम्मस्स उदएणं से णं दुहवेयणतराए चेव दुहविमोयणतराए चेव" ५२न्तु माडनीय अमन यथी ४न्य २ जन्मा छ, ते यावे॥३५ ઉન્માન કરતાં અતિશય દુખપૂર્વક વેદન કરાય એ હોય છે, તથા તેમાંથી મુક્ત થવાનું કાર્ય અતિશય દુઃખપૂર્વક જ સાધી શકાય એવું હોય છે. કારણ કે તે મેહનીયકર્મજન્ય ઉન્માદ અનંત સંસારના હેતુ રૂપ હોય છે અને સંસાર તે દુઃખનું જેમાં વેદન કરવું પડે, એવા સ્વભાવવાળો છે. તથા યક્ષાવેશ રૂપ ઉન્માદ સુખદનતર (અતિશય સુખપૂર્વક વેદન કરી શકાય એ) છે, કારણ કે તે ઉન્માદ એકભાવિક હોય છે. મોહજન્ય ઉન્માદ યક્ષાવેશરૂ૫ ઉન્માદ કરતાં અતિશય દુઃખથી દૂર થાય એવો હોય છે, કારણ કે વિદ્યાવાળા, મંત્રવાળા અને દેવેની અનુકંપાવાળા ને આ શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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