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________________ १८२ भगवतीसूत्रे लक्षगानि यथा-"चिंतेइ १, दटूठुमिच्छइ २, दीहं नीसह ३, तहजरे ४, दाहे ५ । भत्तरोयग६, मुच्छा७, उम्माय८, नयाणई९, मरणं१०॥१॥ चिन्तयति१, द्रष्टुमिच्छतिर, दीर्घ निःश्वसिति३, तथा-धरः४, दाहा५ । भक्तारोचः (भोजनारुचिः)६, मूछौं, उन्मादः८, न जानाति९ मरणम् १०, ॥१॥ इतिच्छाया। एतयोश्च यक्षावेशमोहनीयकर्मोदयजन्ययोरुन्मादत्वे समानेऽपि विशेष दर्शयितुमाह'तत्य णं जे से जक्खारसे से णं सुहवेयणतराए चेव मुहविमोयणतराए चेव' तत्र-तयोरुपर्युक्त योरुन्मादयोर्मध्ये खलु यः स यक्षावेशः उन्मादः प्रज्ञप्तः, स खलु मुखवेदनतरकश्थैः अतिशयेन सुखेन-मोहजन्योन्मादापेक्षयाऽक्लेशेन वेदनम् अनुभवनं यस्यासौ सुखवेदनतरः स एव मुखवेदनतरकश्चैव भवति, अथ च सुखविमोचनतरकश्चैव-अतिशयेन सुखेन विमोचनं-वियोजनं यस्मात् , यस्य वाऽसौ मुखविमोचनतरः स एव सुखविमोचनतरकश्चैव भवति, किन्तु 'तस्थ णं जे से इत्यादि । चिन्तन करना १ देखने की इच्छा का होना २ दीर्घश्वासो. च्छ्वास का चलना ३, ज्वर का हो जाना ४, शरीर में दाह का होना ५, भोजन में अरुचि का होना ६, मूच्छी आजाना ७, बेभान स्थिति का होना ८, सामने की वस्तु को नहीं जानना ९ और अन्त में मरण होना १०, यक्षावेशरूप उन्माद में और मोहनीय कर्मोदय जन्य उन्माद में उन्मादपना समान होने पर भी जो इनमें विशेषता है उसे प्रकट करने के अभिप्राय से सूत्रकार कहते हैं-'तत्थ णं जे से जक्खाएसे से णं सुहवेयणतराए चेव सुहविमोयणतराए चेव' इन दो प्रकार के उन्मादों में जो यक्षावेशरूप उन्माद है-वह मोहजन्य उन्माद की अपेक्षा अतिशयसुखपूर्वक जिसका वेदन होता है ऐसा है और अच्छे प्रकार से जिससे छुटकारा हो जाता है ऐसा होता है । 'तस्थण जे से मोहणिजस्स च्छा" (१) 1ि1 ४२७, (२) नेपानी ५२७। थवी, (3) ही श्वासोच्छ्वास यावी, (४) ता २७३, (५) शरीरमा हाड या, (६) arन प्रत्ये माथि थवी, (७) भूमी मावी वी, (८) मेलान , (6) सामना परतुन नही मी मने (१०) अन्ते भर थयु: યક્ષાવેશરૂપ ઉન્માદ અને મેહનીયકર્મ જન્ય ઉન્માદમાં ઉન્માદવ સમાન હોવા છતાં તે બનેની વચ્ચે જે અંતર (દ) છે, તે પ્રકટ કરવાને માટે सत्रकार छ -" तत्थ णं जे से जक्खाएसे से णं सुहवेयणतराए, चेव सुहविमोयणतराए चेव'' मा मे प्रश्न E-माहीमाथी यक्षावश३५ भाई છે તે મહજન્ય ઉમાદ કરતાં અતિશય સુખપૂર્વક વેદન કરાય અ અને सकताथी माथी भुत पाय व डाय छे. "तस्थ णं जे से मोह શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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