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________________ , मैचन्द्रिका टीका श०१४ उ०१ सू०१ ना० अनन्तरोपपन्नकत्वादिनि० १७१ परम्पराऽनिर्गता उच्यन्ते इति प्रश्नः भगवानाह - ' गोयमा ! नेरइया णं अनंतरनिग्गया वि, जाव अणंतरपरंपर अनिगया वि' हे गौतम! नैरयिकाः खलु अनन्तरनिर्गता अपि भवन्ति, यावत्-परम्परा निर्गता अपि भवन्ति, अनन्तरपरम्पराऽनिर्गता अपि भवन्ति, गौतमः पृच्छति' से केणद्वेणं जाव अणिग्गया वि' तत् - अथ, केनार्थेन - केन कारणेन यावत्-एवमुच्यते-नैरयिका अनन्तर निर्गता अपि परम्परानिर्गता अपि, अनन्तरपरम्पराऽनिर्गता अपि भवन्ति ? भगवानाह - गोयमा ! जे गं नेरइया पढमसमयनिग्गया ते णं नेरइया अणंतर निम्गया' हे गौतम ! ये खछनैरयिकाः प्रथमसमयनिर्गता भवन्ति ते खलु नैरयिका अनन्तरनिर्गता उच्यन्ते, 'जेणं नेरइया अपढमसमय निग्गया ते णं नेरहया परंपरप्रभु कहते हैं - 'गोयमा' हे गौतम! 'नेरयाणं अनंतर निग्गया वि, जाव अनंतर परंपर अनिग्गया' नैरयिक अनन्तर निर्गत भी होते हैं, यावत् परंपरनिर्गत भी होते हैं, तथा अनन्तर परम्पर अनिर्गत भी होते हैं। अब गौतमप्रभु से ऐसा पूछते हैं 'से केणट्टेणं जाव अणिग्गया वि' हे भदन्त ! ऐसा आप किस कारण से कहते हैं कि नारक अनन्तर निर्गत भी होते हैं, परंपरनिर्गत भी होते हैं और अनन्तर परंपर अनिर्गत भी होते हैं ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं- 'गोयमा' हे गौतम! 'जेणं नेरइया पढमसमयनिग्गया, ते णं नेरइया अणंतरनिग्गया' जो नैरयिक प्रथम समय में नरक से निकले हुए होते हैं, वे अनन्तर निर्गत नारक कहे गये हैं, 'जेणं नेरइया अपढमसमयनिग्गया ते णं नेरइया परंपरनिग्गया' तथा जो नारक नरक से द्वितीयादि समय में निर्गत होते हैं महावीर प्रभुना उत्तर- " गोयमा ! " हे गौतम! " नेरइयाणं अनंतर निग्गया वि, जाव अनंतर पर पर अनिग्गया " नार। अनन्तर निर्गत पशु હાય છે, પરસ્પર નિર્ગત પહુ હાય છે, તથા અનન્તર પરમ્પર અનિગત પણ હોય છે. गौतम स्वामीने! अश्न-" से केणद्वेणं जाव अणिगया वि ?” हे भगवन् ! આપ શા કારણે એવું કહેા છે કે નારક અનન્તર નિત પણ હાય છે, પરસ્પર નિ ત પશુ હાય છે અને અનન્તર પર′પર અનિત પણ હાય છે? महावीर प्रभुना उत्तर- " गोयमा ! " हे गौतम! " जेणं नेरइया पढमसमयनिग्गया, वे णं नेरइया अणंतरनिग्मया" ने नार। प्रथम सभयभां नरभांथी नीला होय छे, तेभने अनन्तर निर्गत नारो ण' नेरइया अपढमसमयनिग्गया ते णं नेरइया पर परनिग्गया " જે નારકા નરકમાંથી દ્વિતીયાદિ સમયમાં નિકળેલા હોય છે, તેમને પરસ્પરનિગ ત નારકા उडे छे. " मे શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૧
SR No.006325
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 11 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1968
Total Pages906
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size53 MB
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