________________
६०२
भगवतीसूत्रे
नैर्ऋती विदि यथा आग्नेयी विदिक् प्रतिपादिता तथैव प्रतिपत्तव्या एवं पूर्वोक्त त्या, यथा ऐन्द्री दिकू मरूपिता तथैव दिशश्चतस्रः पूर्वा दक्षिणा पश्चिमा उत्तरा च प्ररूपणीया, एवं यथा आग्नेयी विदिक प्रतिपादिता तथा चतस्रोऽपि नैर्ऋती, वायव्या, ऐशानी, आग्नेयी च प्रतिपत्तव्या । गौतमः पृच्छति - 'विमलाणं भंते दिसा किमाइया पुच्छा जहा अग्गेयीए ?' हे भदन्त ! विमला खलु ऊर्ध्वादिकू किमादिका - कः आदिर्यस्याः सा तथाविधा, किं प्रवहा, कति प्रदेशादिका कति प्रदेशोत्तरा, कतिप्रदेशिका, किं पर्यवसिता, किं संस्थिता मज्ञप्ता इति पृच्छा यथा आग्नेय्या विदिशः पृच्छा कृता तथा विमळायाः पृच्छा कर्त्तव्या । भगवानाह -
है । इसी प्रकार जैसा कथन पूर्वदिशा के संबंध में किया गया है इसी प्रकार का कथन शेष दिशाओं के संबंध में अर्थात् दक्षिण पश्चिम और उत्तर दिशाओं के संबंध में और जैसा कथन में आग्नेयीविदिशा के संबंध में किया गया है वैसा ही कथन शेष तीन विदिशाओं के नैर्ऋती वायव्य और ऐशानी के संबंध में भी करना चाहिये | अब गौतमस्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं- 'विमला णं भंते । दिसा किमाइया० पुच्छा - जहा अग्गेयीए' हे भदन्त ! विमला - ऊर्ध्वदिशा किस प्रकारके आदिवाली है ? इसके निर्गम का मूल कौन है ? इसकी आदि में कितने प्रदेश हैं ? वृद्धि में इसके कितने प्रदेश हैं ? यह स्वयं कितनी प्रदेशोंवाली है ? इसका अंत कहां है ? कैसा इसका आकार है ? इस प्रकार से जैसे प्रश्न पहिले आग्नेयी विदिशा के संबंध में किये गये हैं वैसे ही प्रश्न इस विमला दिशा के संबंध में भी ये किये हैं । इसके उत्तर में प्रभु
વિષે સમજવું આ પ્રકારે જેવું કથન પૂર્વ દિશા વિષે કરવામાં આવ્યુ છે, એવું જ કથન ખાકીની દિશાઓ-દક્ષિણ, પશ્ચિમ અને ઉત્તર દિશા વિષે સમજવુ' અગ્નિવિદિશા વિષે જેવુ કથન કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન माडीनी विडिशा-नैऋत्य, वायव्य मने शिान - विषे समन्न्वु .
गौतम स्वामीनी प्रश्न - " विमलाणं भंते ! दिना किमाइया० पुच्छा - जहा अग्गेयीए " हे भगवन् ! विभसा हिशा ( ध्व हिशा) हुया आहि वाणी छे ? તેના નિગ મનુ` મૂળ કર્યાં છે? તેની આદિમાં કેટલા પ્રદેશ છે? વૃદ્ધિમાં કેટલા પ્રદેશ છે? તે પાતે કેટલા પ્રદેશેાવાળી છે? તેને અન્ત કર્યાં છે? તેના આકાર કેવા છે ? આ પ્રકારે જેવા પ્રના અગ્નિવિદિશા વિષે પૂછવામાં આવ્યા છે, એવા જ પ્રશ્નો ઉર્ધ્વ દિશા વિષે પણ પૂછવામાં આવ્યા છે.
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦