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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १३ उ० २ सू० १ देवविशेषनिरूपणम् ५५३ 'अचरिमा वि खोडिजंति, जाव संखेज्जा चरिमा पण्णता, सेसं तं चेव' अचरमा अपि अत्र प्रतिषिध्यन्ते, तथा च येषां चरमोऽनुत्तरदेवभवः स एव ते चरमास्तदमिनास्तु अचरमास्ते चात्र प्रतिषेधविताः , यतश्चरमाणामेव मध्यमे अनुत्तरविमाने उत्पद्यमानत्वात् , अवरमाणां तत्रानुत्पादाद , यावत्-संख्येया: शुक्लपाक्षि कादयः' संख्येयाश्चरमाश्च प्राप्ताः सन्ति, शेषं तदेव-पूर्वोक्तवदेवायसेयम् । असंखेज्जवित्थडेसु वि एए न भणति' असंख्येयविस्तृतेषु अपि असंख्यात योजनविस्तारयुक्तेषु, इत्यर्थः एवमग्रेऽपि चतुर्यु अनुत्तरविमानेषु एते पूर्वोक्ताः कृष्णपाक्षिकादयः त्रिष्वपि आलापकेषु-उत्पाद-च्यवन-सत्ता विषयेषु न पाक्षिक और अभवसिद्धिक जीवों का उत्पाद च्यवन और सत्ताविषयक इन तीन आलापकों में प्रतिषेध किया गया है । ऐसा जानना चाहिये । 'अचरिमा वि खोडिज्जति, जाच संखेज्जा चरिमा पण्णत्ता, सेसं तं चेव' यहां अचरमजीवों का भी उत्पाद निषिद्ध है-क्योंकि इस मध्यम अनुत्तरविमानमें चरम जीवों का ही उत्पाद होता है। तात्पर्य कहने का यह है कि-जिनका वही अनुत्तरभव चरम-अन्तिम भव है वे तो चरम हैं-और इनसे भिन्न अचरम हैं। अचरमजीवों का यहां उत्पाद ही नहीं होता है। क्योंकि उनके अभीभव बाकी रहते हैं। जिनके भव इसी अव के सिवाय नहीं होते हैं-जो यहां से चवित होकर मनुष्यभव लेकर मोक्ष में जानेवाले होते हैं-वे ही जीव यहां उत्पन्न होते कहे हैं। इसी कारण यहां संख्यात शुक्लपाक्षिकजीव और संख्यात चमरभववाले जीव कहे गये हैं। बाकी का और सब कथन पूर्व में जैसा कहा गया है वैसा ही जानना चाहिये। 'असंखेज वित्थडेलु वि एए न भण्णंति' असंख्यातयोजनविस्तारवाले चार अनुઅજ્ઞાનવાળા કૃષ્ણપાક્ષિક, અને અભાવસિદ્ધિક અને ઉત્પાદ, યવન અને અસ્તિત્વ વિષયક ત્રણ આલાપકોમાં નિષેધ કરવામાં આવ્યો છે, એમ सभा. " अचरिमा वि खोडिज्जंति, जाप संखेजा चरिमा पण्णत्ता, सेसं तंचेव" त्या भयरम वान पा यता नथी, प॥२१ मा मध्यम અનુત્તર વિમાનમાં ચરમ જીવોને જ ઉત્પાદ થાય છે. આ કથનનો ભાવાર્થ એ છે કે-જેમને અનુત્તર વિમાનમાં ઉત્પત્તિ રૂપે ભવ ચરમ (અન્તિમ) છે, એવા જીવને જ ત્યાં ઉપાદ થાય છે. જેને તે ભવ અતિમ નથી, એવા જીવને અચરમ કહે છે. એવા અચરમ જીવોને ત્યાં ઉત્પાદ થતું નથી જે છે ત્યાંથી ચ્યવીને મનુષ્ય ભવ પ્રાપ્ત કરીને મોક્ષ પ્રાપ્ત કરવાના છે, એવાં જીવન અને સંખ્યાત ચરમભવવાળા ને સદુર્ભાવ કહ્યો છે. બાકીનું સમસ્ત કથન પૂવક્ત કથન પ્રમાણે જ સમજવું. भ० ७० શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦
SR No.006324
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages735
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size43 MB
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