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________________ ५५२ भगवतीसूत्रे देवा उपपद्यन्ते, 'एवं जहा गेवेज्जविमाणे संखेज्जवित्थडेसु' एवं-पूरॊक्तरीत्या, यथा अवेयकविमानेषु संख्येयविस्त नेषु उक्तं तथैव अत्रापि वक्तव्यम् , किन्तु नवरं किण्हपक्खिया, अभवसिद्धिया, तिसु अण्णाणेसु एए न उववजंति, न चयन्ति, न पणत्त एमु भाणियबा' नवरं-पूर्णपेक्षया विशेषस्तु अत्र कृष्णपाक्षिकाः, अभवसिद्धिकाः त्रिषु अज्ञानेषु मत्यज्ञानश्रुताज्ञानविभङ्गज्ञानलक्षणेषु वर्तमाना एते जीवा न उम्पद्यन्ते, न च्यवन्ति, न प्रज्ञप्तपदोपलक्षितेषु च भणितव्याः न प्रज्ञप्ताः सनीति भावः। 'एवं च अनुतरविमानेषु संख्येयविस्तुते विमाने सम्यग्दृष्टीनामेवोत्पादसद्भावात् कृष्णपाक्षिकाभवसिद्धिकव्यज्ञानि नाम् आलापकत्रयेऽपि उत्पाद-च्यवन-सत्ताविषयके प्रतिषेधः कृतोऽबसे यः, अनुत्तरोपपातिक देव उत्पन्न होते हैं। 'एवं जहागेवेज्जविमाणेसु संखे जविस्थडेसु' इस प्रकार से जैसा पूर्व में संख्यातयोजन विस्तारवाले ग्रेवेयकविमानों में कहा गया है उसी प्रकार से यहां पर भी जानना चाहिये। परन्तु 'नवरं किण्हपक्खिया, अभवसिद्धिया तितु अन्नाणेलु एए न उववज्जंति, न चयंति, न पण्णत्तेसु भाणियव्या' नवौवेयकों के कथन की अपेक्षा यदि यहां के कथन में कोई विशेषता है तो वह ऐसी है कि मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान और विभङ्गज्ञान इन तीन अज्ञानों में वर्तमान कृष्णपाक्षिक और अभवसिद्धिक जीव यहाँ उत्पन्न नहीं होते हैं, यहां से उद्वर्तना नहीं करते हैं और न सत्ता में ही यहां होते हैं। इस प्रकार संख्यातयोजन विस्तारवाले अनुत्तरविमान में सम्यग्दृष्टि जीवों का ही उत्पाद होता है, इस कारण वहां तीन अज्ञानवाले कृष्ण. ઓછામાં ઓછા એક, બે અથવા ત્રણ અને વધારેમાં વધારે સંખ્યાત अनुत्त।५५ति । उत्पन्न थाय छे. “ एवं जहा गेवेज्जविमाणेसु संखेज्ज वित्थडेसु" saiवु थन सभ्यात योनना विस्तारवाणां त्रैवेय४ વિમાનના દેવેના વિષે કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન સંખ્યાત જ. नना विस्तारवा अनुत्तर विमानना हेवा वि ५ सभा “ नवरं किण्हपक्खिया, अभवसिद्धिया, तिसु अन्नाणेसु एए न उववज्जति, न चयंति न पण्णत्तेस भाणियवा" परन्तु नवयहना ४थन ४२di मही की विशेषता છે કે સંખ્યાત જનના વિસ્તારવાળા અનુત્તર વિમાનમાં કૃષ્ણપાક્ષિક, અભવસિદ્ધિક અને મતિજ્ઞાન, કૃતઅજ્ઞાન, અને વિર્ભાગજ્ઞાન, આ ત્રણ અજ્ઞાનથી યુક્ત ની ઉત્પત્તિ થતી નથી, યવન પણ થતું નથી અને એવાં જીવે ત્યાં વિદ્યમાન પણ હોતા નથી. આ રીતે સંખ્યાત એજનના વિસ્તારવાળા અનુત્તર વિમાનમાં સમ્યગ્દષ્ટિ જીને જ ઉત્પાદ, થાય છે તે કારણે ત્રણ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦
SR No.006324
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages735
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size43 MB
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