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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १३ उ० १ ० १ पृथिव्यादिनिरूपणम् ४६७ नो इंदिओवउत्ता उववज्जति' जघन्येन-एको वा, द्वौ वा, त्रयो वा, उत्कृष्टेन संख्येया नो इन्द्रियोपयुक्ता उपद्यन्ते, यद्यपि नो इन्द्रियस्य मनोरूपतया तत्र मनः पर्याप्त्यभावे द्रव्यमनो नास्ति तथापि भावमनसश्चैतन्यरूपस्य सदा सभावात् तदुपयुक्तानामुत्पादात् नो इन्द्रियोपयुक्ता उत्पद्यन्ते इत्युक्तम् , 'मणमोगी ण उववज्जति, एवं वइजोगी वि' मनोयोगिनः तत्र नोपपद्यन्ते, एवं-तथैव वचो. योगिनोऽपि तत्र नोत्पद्यन्ते, उत्पादसमयेऽपर्याप्तकत्वेन मनोवचसोरसद्भावात् , 'जहण्णेणं एको वा, दो वा, तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा का रजोगी उप्रवज्जति' वज्जंति' जघन्य से एक, दो, अथवा तीन और उत्कृष्ट से संख्यात नोइन्द्रियोपयुक्त उत्पन्न होते हैं । शंका-अपर्याप्तावस्था में वहां पर मनः पर्याप्ति के अभाव में द्रव्यमन नहीं होता है-और यह नोइन्द्रिय मनोरूप होती है-अतः कैसे वहां पर नो इन्द्रियोपयुक्तों का उत्पाद कहा गया है ? तो इसका उत्तर ऐसा है कि यद्यपि वहां पर द्रव्यमान नहीं है परन्तु फिर भी चैतन्यरूप भावमन का तो सदा सद्भाव रहता है इसलिये तदुपयुक्तजीवों का उत्पाद होने से नो इन्द्रियोपयुक्तों का उत्पाद कहा गया है ? ' मणयोगी ण उववज्जति, एवं वइजोगी वि' मनोयोगी और वचोयोगी वहां उत्पन्न नहीं होते हैं क्योंकि उत्पाद समय में अपर्याप्तक होने से मन और वचन का अभाव कहा गया है 'जहण्णेणं एको वा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा कायजोगी उववज्जति' अघन्य से एक दो अथवा ममा २७ छ. “ जहण्णेणं एका वा, दो वा, तिन्निवा, उक्कोसेण संखेज्जा नोइंदियोवउत्ता उबवज्जंति" त्या माछामा ॥छ। मेरे अथवा भने વધારેમાં વધારે સંખ્યાત નેઈન્દ્રિપયુકત જીવ ઉત્પન્ન થાય છે. શંકા-અપર્યાપ્તાવસ્થામાં ત્યાં મન:પર્યાપ્તિના અભાવને લીધે મનને સદ્ભાવ હોતું નથી, અને આ નેઈન્દ્રિય મનરૂપ હોય છે. તે પછી ત્યાં નઈન્દ્રિપયુકતોને સદ્ભાવ કેવી રીતે સંભવી શકે ? ઉત્તર–જો કે ત્યાં દ્રવ્યમનને સદૂભાવ નથી, પરતુ ચેતન્ય રૂ૫ ભાવ મનને તે સદા સદૂભાવ રહે છે. તેથી ભાવમાપયુકત જીવોને ત્યાં ઉત્પાદ થવાથી ઈન્દ્રિયાપયુકતેને સદ્ભાવ કહેવામાં આવે છે “मणजोगीण ववज्जति, एवं वइजोगी वि" त्यां मनायो भने વચનગી જી ઉત્પન્ન થતા નથી, કારણ કે ઉત્પાદન સમયે તેઓ અપર્યાપ્તક डाय , तथा भन भने वयननी मला पाम माव्य। छ. जहण्णेण एककोवा, दो वा, तिन्निवा, उक्कोसेण संखेज्जा कायजोगी उत्रवज्जति" यां શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦
SR No.006324
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages735
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size43 MB
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