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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श०१२ उ० १० सू० ३ रत्नप्रभादिविशेषनिरूपणम् ४०९ पुद्गला स्यात् आत्मा सदरूपः, स्यात् नो आत्मा-असद्पो वर्तते, स्यात् अवक्तव्यम्आत्मा इति च नो आत्मा इति च शब्देन युगपद्व्यपदेष्टुमशक्यः इति भावः, एवं परमाणुपुद्गले असंयोगिनस्त्रयोभङ्गाः३। गौतमः पृच्छति-'आया भंते । दुप्पएसिए खंधे अन्ने दुप्पएसिए खंधे' हे भदन्त ! द्विप्रदेशिकः स्कन्धः किम् के अनुसार सौधर्मकल्प कहा गया है उस प्रकार से परमाणुपुद्गल भी कहना चाहिये तथा परमाणुपुद्गल कथंचित् असद्रूप है और आत्मा एवं नो आत्मा इन शब्दों द्वारा वह युगपत् कहने के लिये अशक्य होने से कथंचित् अवक्तव्य भी है। इस प्रकार परमाणुपुद्गल में ये असंयोगी तीन भंग हैं३ । तात्पर्य यह है कि-परमाणुपुद्गल में तीन भंग बनते हैं, यथा कथंचित् आत्मा१ कथंचित् नो आत्मा२ कथंचित्-अवक्तव्य३ । अर्थात् अपने स्वरूप की अपेक्षा (अपने वर्णादि पर्याय की अपेक्षा) आत्मा (सद्ग-विद्यमान) है १। परपर्यायों को अपेक्षा नो आत्मा (अनात्मा-असद्रूप अविद्यमान है। उभय कि अपेक्षा (स्वपर्याय और परपर्याय कि अपेक्षा अवक्तव्य है ३ । क्योंकि यदि स्वरूप कहा जावे तो वह परपर्याय कि अपेक्षा सद्रूप नहीं हैं। और यदि असद्रूप कहा जाय तो वह स्वपर्याय की अपेक्षा असदरूप नहीं है अतः सदरूप और असदुरूप किसी एक शब्द द्वारा न कहा जा सकने के कारण उसे अवक्तव्य शब्द से कहा गया है। यह अवक्तव्यपन आत्मा और नोआत्मा शब्द कि अपेक्षा से है किन्तु सर्वथा अवक्तव्य नहीं हैं । यदि ऐसा हो तब तो उसे 'अवक्तव्य' शब्द से भी नहीं कहा जासकता है। किन्तु ऐसी दशा में उनका कथन अवक्तव्य' शब्द से किया जाता है । परमाणु पुद्गल में जो ये तीन भंग कहे गये है, वे आगे के विप्रदेशी आदि सभी स्कन्धों में सम्पूर्ण स्कंध की अपेक्षा बनते हैं और शेष भंग देशकी अपेक्षा से बनते हैं। अब गौतम स्वामी प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'आया भंते ! दुप्पएसिए खंधे अन्ने दुप्पएसिए खंधे' हे भदन्त ! द्विपदेशिक स्कंध क्या सदुरूप है ? કથન કરવામાં આવ્યું છે, એવું જ કથન પરમાણુ પુલના વિષયમાં પણ ગ્રહણ કરવું જોઈએ જેમ કે પરમાણુ યુદ્ધ કથંચિત્ (અમુક અપેક્ષાએ) સરૂપ છે, કથંચિત્ અસરૂપ છે અને આત્મા, ને આત્મા શબ્દો વડે એક સાથે અવાચ્ય હોવાને કારણે કથંચિત અવક્તવ્ય પણ છે પરમાણુ કલમાં આ ત્રણ અસંગી ભંગ સંભવી શકે છે. गौतम स्वामीन। प्रश्न-" आया भंते ! दुप्पएसिए खंधे अन्ने दुप्पएसिए खंधे ?" है मगवन् ! विशि : २४५ शु स६३५ छ है मस३५ छ ? भ० ५२ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦
SR No.006324
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages735
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size43 MB
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