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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० १२ उ० ८ सू०२ तिर्यग्योनिकविशेषनिरूपणम् २८९ अतस्ते गोलागूलादयो नैरयिकतया उत्पत्तुकामा अपि नैरयिका एव व्यपदिश्यन्ते इति श्रमणो भगवान् महावीरः स्वयं व्याकरोति-व्याख्याति, नतु जमाल्यादिरित्यवसेयम् । गौतमः पृच्छति-'अह भंते ! सौहे वग्धे जहा उस्सप्पिणी उद्देसए जाव परस्सरे, एएणं निस्सीला ? ' हे भदन्त ! अथ सिंहः, व्याघः, यथा उत्सर्पिण्युद्देशके-सप्तमशतकस्य षष्ठोद्देशके प्रतिपादितं तथैवात्रापि प्रतिपत्तव्यम् , यावत्-भल्लूकः, तरक्षुः खगी, परासरः शरमः, एते खलु सिंहप्रभृतयः परासरान्ताः पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनयः, निःशीला:-सदाचाररहिताः, निर्वता:-अणुव्रतमें विवक्षा के अधीन अभेद मान लिया जाता है । इसलिये वे गोला गूल आदि जीव नैरयिक रूप से आगे उत्पन्न होने के कारण अभीसे नैरयिक ही हैं ऐसा उनमें व्यपदेश हो जाता है। गाय की पूंछ के समान जिन की पूंछ होती है-वे गोलाङ्गुल हैं और इनमें जो वृषभश्रेष्ठ हैं वे गोलाङ्गुलवृषभ हैं। यहां वृषभ शब्द प्रशस्त अर्थ का याचक है। कुक्कुटवृषम आदि पदों में भी ऐसा ही जानना चाहिये। इस प्रकार का यह कथन स्वयं भगवान महावीर ने ही किया है-जमालि आदिकों ने नहीं। अब गौतम प्रभु से ऐसा पूछते हैं-'अह भंते ! सीहे, वग्घे, जहा उस्सपिणी उद्देसए जाव परस्सरे' एएणं निस्सीला हे भदन्त ! सिंह, व्याघ्र, एवं उत्सर्पिणी उद्देशक में सप्तमशतक के छठे उद्देशक में-प्रतिपादित यावत् भल्लूक, तरक्षु खड्गी, परासर, शरभ ये सब सिंह से लेकर परासर तक के पश्चेन्द्रियतिर्यग्योनि के जीव सदाचाररहित, अणुव्रतरગોલાંગૂલવૃષભ આદિ જવ નારકે રૂપે ભવિષ્યમાં ઉત્પન્ન થવાના હેવાથી, નારકો જ છે” એ વ્યવહાર વર્તમાન કાળે પણ તેમના માટે કરી શકાય છે. ગાયની પૂંછડી જેવું જેને પૂંછડું હોય છે એવા વાનરેના સમૂહના નાયક રૂપ વાનરને ગેરલાંગૂલવૃષમ કહે છે. અહીં વૃષભ પદ પ્રશસ્ત અર્થનું વાચક છે. કુક્કુટવૃષભ આદિને અર્થ પણ એવો જ સમજ. આ પ્રકારનું કથન ખુદ મહાવીર ભગવાને કર્યું છે, જમાલિ આદિ દ્વારા આ પ્રકારનું કથન કરાયું નથી गौतम स्वाभानी प्रश्न-“ अह भंते! सीहे. वग्घे, जहा उस्सप्पिणी उदेसए ज.व परस्सरे, एएणं निस्त्रीला०" भगवन् ! सिड, वाघ भने सातभा શતકના છઠ્ઠા ઉત્સર્પિણી ઉદ્દેશકમાં પ્રતિપાદિત રીંછ, તરસ, ગેંડ, પરાસર, શર, ઈત્યાદિ પંચેન્દ્રિય તિયંગેનિક છે કે જેઓ સદાચાર રહિત, भ० ३७ શ્રી ભગવતી સૂત્ર: ૧૦
SR No.006324
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages735
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size43 MB
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