SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 238
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवतीसूत्रे त्रोपकरणानिच विलसन्ति, अथ च 'अप्पणोऽवि य णं चंदे जोइसिंदे, जोइसराया सोमे, कंते, सुभए, पियदंसणे, सुरूवे, से तेणट्टेणं जाब ससी' आत्माना स्वयमपि च खलु चन्द्रो ज्योतिषिकेन्द्रः ज्योतिषिकराजः, सौम्यः, भद्रः, कान्तः - कान्तिशाली, सुभगः - सौभाग्यशालित्वात् लोकप्रियः, प्रियदर्शनः - परमाहादकः, यतः - सुरूपःपरमसुन्दरश्च वर्तते तव तेनार्थेन तेन कारणेन यावत् एवमुच्यते - चन्द्रः सश्रीःसहश्रिया वर्तते यः स सश्रीरिति, तदीयदेवदेवीप्रभृतीनां स्वस्य च कान्त्यादियुक्तत्वादिति भावः । प्राकृतापेक्षया 'ससी' इति सिद्धम् ||०२|| सूर्यस्य आदित्यनामान्वर्थतावक्तव्यता - मूलम्--"से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ-सूरे आइचे, सूरे आचे ? गोयमा ! सूरादिया णं समयाइ वा, आवलियाइ वा, जाय उस्सप्पिणी वा अवसप्पिणीइ वा से तेणद्वेणं जाव आइच्ये ॥ सू० ३|| २२४ आदि उपकरण सदा सुहावने' बने रहते हैं और 'अप्पणो वि य णं चंदे जोइसिंदे जोइसराया सोमे कंते, सुभए, पियदंसणे, सुरूवे, से तेणद्वेणं जाय ससी' स्वयं ज्योतिषिक इन्द्र और ज्योतिषिक राजा चन्द्र भी सौम्य-भद्र है, कान्त- कान्तिशाली है, सुभग- सौभाग्यशाली होने से लोकप्रिय है, प्रियदर्शन - परम आह्लादकारक है, और इसी से वह परमसुन्दर है इस कारण हे गौतम ! चन्द्र 'सश्री' श्री - शोभा सहित इसलिये वह 'सश्री' है ऐसा कहा गया है तात्पर्य कहने का यही है कि चन्द्र देव की देवदेवियां आदि सब चीजें कान्त्यादि युक्त हैं और चन्द्र स्वयं भी कान्ति आदि से युक्त है-इसलिये चन्द्र को 'सश्री ' ऐसा सार्थक नाम से अभिहित किया गया है || सू०२॥ चदे जोइसिंदे जोइसराया सोमे, कंते, सुभए, पियदंसणे, सुरूवे, से तेजçणं जाव ससी " ज्योतिषिकेन्द्र, ज्योतिषिक राम यन्द्र पोते पण सौम्य (लद्र), अन्त (अन्तियुक्त), सुलग (सौभाग्यसंपन्न) मने प्रियदर्शन (भेनु दर्शन सोने આહ્લાદજનક થઈ પડે એવા) હાવાથી અતિશય સુંદર છે તે કારણે, હૈ ગૌતમ! ચન્દ્રને " सश्री " (शोलायुक्त वामां आवे छे. मा સમસ્ત કથનના ભાવાથ એ છે કે ચન્દ્રદેવની દેવદેવીઓ આદિ સમસ્ત ચીજો કાન્તિ આદિથી યુકત છે અને ચન્દ્રપાતે પણ કાન્તિ આદિથી યુક્ત છે, તેથી ચન્દ્રને “ સશ્રી” એવી સાર્થક નામસ'જ્ઞા આપવામાં આવી છે. સૂ૦૨/ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૧૦
SR No.006324
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 10 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages735
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size43 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy