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________________ प्रमेयचन्द्रिका टीका श० ११ १० १ सू० १ उत्पले जीवोत्पातनिरूपणम् २२५ निर्गच्छति. धर्मोपदेश श्रुत्वा प्रतिगता पर्षत, ततो विनयेन शुश्रूषमाणो नमस्यन् पाञ्जलिपुटः विनयेन पयुवासीनो गौतमः भगवन्तम् एवं-वक्ष्यमाणप्रकारेण अवादीत-'उप्पलेणं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे, अणेगजीवे ?' हे भदन्त ! उत्पलम् खलु कमलविशेषः एक पत्रकम्- एक पत्रं यत्र तदेकपत्रकम्, अथवा एकंच तत्वत्रम् एकपत्रम् एकपत्रं तदेव एकपत्रकम् तस्मिन् सति, उत्पलादेरेक पत्रावस्थायामित्यर्थः, एकपत्रकं चात्र किशलयावस्थाया अनन्तरम् अवमेयमितिभावः । किम् एक जीवम्-एको जीवो यत्र तदेकजीवम् ? किं वा अनेकजीवं भवति ? अनेकेनीया यत्र तदनेकजीयम्, तथाविधमित्यर्थः, भगवानाद'गोयमा! एगजीथे, जो अणेग जोवे, तेण परं जे अन्ने जीवा उबवज्जति, तेणं णो एगजीवा, अणेगनीया हे गौतम ! उत्पलम एकपत्रावस्थायाम् एक जीवं २ स्थान से निकली और महावीर स्वामी के पास आई, महावीर स्वामी ने धर्मदेशना दी. उसको श्रवण कर वह पीछे अपने २ स्थान पर चली गई. इसके बाद विनय के साथ गौतम ने दोनों हाथ जोडकर नमस्कार करते हुए प्रभु से इस प्रकार पूछा-'उप्पले ण भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे' हे भदन्त ! उत्पल-कमलविशेष आदि जब एकपत्रावस्था वाला होता है (यह अवस्था किशलयावस्था (कोंपल) के अनन्तर होती है) तब वह क्या एकजीव वाला-एक है जीव जिसमें ऐसा होता है या अनेक जीव वाला-अनेक हैं जीव जिसमें ऐसा होता है ? इसके उत्तर में प्रभु कहते हैं-'गोयमा' हे गौतम ! 'एगजीवे, णो अणेग जीवे, तेण परं जे अन्ने जीवा उववज्जंति, तेणणो एगजीया-अणेगजीवा' एक पत्रावस्था में उत्पल एकजीव वाला होता है, अनेकजीव वाला नहीं તેમનાં દર્શન કરવાને માટે તથા ધર્મોપદેશ સાંભળવાને માટે પરિષદ (પ્રખદા) નીકળી. મહાવીર પ્રભુને વંદણા નમસ્કાર કરીને તથા તેમની દેશના સાંભળીને પરિષદ પાછી ફરી. ત્યાર બાદ ગૌતમ સ્વામીએ બને હાથ જોડીને નમસ્કાર श२ विनयपूर्व प्रमाणे पूछ्यु-“ उप्पलेण भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे अणेगजीवे ? - S५० (भा विशेष) न्यारे पत्रावस्थामा હોય છે, ત્યારે શું તે એક જીવવાળું હોય છે, કે અનેક જીવવાળું હોય છે? (જેમાં એક જ જીવ હોય તેને એક જીવવાનું અને અનેક જીવ હોય तेन भने ७१५:४९ छे) महावीर प्रभुन उत्तर-“ गोयमा!" गीतम!" एग जीवे णे! अणेगजीवे, तेण परं जे अन्ने उववज्जति, तेणं णो एग जीवा-अणेग जीवा" : भ० २९ શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૯
SR No.006323
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 09 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1967
Total Pages760
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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