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भगवतीसूत्रे गाङ्गेय ? नो सान्तरं पृथिवीकायिका उपपद्यन्ते निरन्तर पृथिवीकायिका उपपधन्ते । एवं यावत् वनस्पतिकायिकाः, द्वीन्द्रिया यावत् वैमानिकाः, एते यथा नैरयिकाः ॥ सू० १॥ ___टीका-'तेणं कालेणं, तेणं समएणं वाणियगामे नामं नयरे होत्था, वण्णओ' तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाणिज्यनाम नाम नगरमासीत् वर्णकः-वर्णनम् , अस्य वर्णनम् औपपातिकवर्णितचम्पानगरीवर्णनवदवसेयम् , ' दुइपलासे चेइए' दूतिपलाशं नाम चैत्यम् उद्यानमासीत् , तस्य वर्णनमपि औपपातिकमूत्रोक्तपूर्णउत्पन्न नहीं होते हैं किन्तु वे विना अन्तर के ही उत्पन्न होते हैं । ( एवं जाव वणस्सइकाइया-वेइंदिया जाव वेमाणिया-एए जहा नेरइया) ऐसा ही कथन यावत् वनस्पतिकायिक जीवों तक जानना चाहिये। वे इन्द्रिय जीवों से लेकर यावत् वैमानिकों तक का कथन नैरयिकों के कथन की तरह जानना चाहिये।
टीकार्थ-अनन्तर उद्देशक में केवली आदि के वचन को सुन करके जीव केवलज्ञान उत्पन्न कर सकता है ऐसा कथन किया गया है-सो जिसने केवली के वचन को सुनकर केवलज्ञान उत्पन्न कर लिया है उसका प्रतिपादन सूत्रकार इस उद्देशक में करते हैं-(तेणं कालेणं तेणं समएणं) उस काल और उस समय में (वाणियगामे नामं नयरे होत्था) वाणिज्यग्राम इस नाम का नगर था। (वण्णओ ) इसका वर्णन औपपातिकसूत्र में वर्णित चंगा नगरी के वर्णन जैसा ही जानना चाहिये। (दूइपलासे चेइए) उसमें दूतिपलाश नाम का यक्षायतन था-उद्यान
( एवं जाव वणसइ काइया ) पृथ्वीयिजीनारे ४थन वनस्पतिथि ५य-तना सन्द्रिय । विषे सभा. (बइंदिया जाव वेमाणिया-ए ए जहा नेइया ) मे छन्द्रि वाथी सपने मानि पर्यन्तन लानु अथन नाना કથન પ્રમાણે જ સમજવું.
ટકાર્થ–આગળના ઉદ્દેશકમાં કેવલી આદિના વચને શ્રવણ કરીને જીવ કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન કરી શકે છે, એવું પ્રતિપાદન કરવામાં આવ્યું છે. હવે સૂત્રકાર આ ઉદ્દેશકમાં જેણે કેવલીના વચન સાંભળીને કેવળજ્ઞાન ઉત્પન્ન ४श दीधु छ, मेवी व्यतितुं प्रतिपादन ४२ छ-" तेण कालेण तेण समएण" तेणे भने त समये " वाणियगामे नाम नयरे होत्था " पायाम नामे नगर हेतु. “वण्णओ" मौ५५ति सूत्रमा या नगरीतुं २ प ७२. पामा मायुं छे, मे तेनुं न समrg. " दूइपलासे चेइए " ते नर
श्रीभगवती. सूत्र: ८