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प्रमेयचन्द्रिका टीका २० ८ ० ८ सू०३ कर्मबन्धस्वरूपनिरूपणम् ७१ विकल्पे पर्यवसानं स्यात् न षष्ठो विकल्पः इति भावः, सप्तमस्तु भव्यविशेषस्य ७, अष्टमस्तु अभव्यस्य इति ८ । अत्र भवाकर्षापेक्षेषु अष्टसु विकल्पेषु 'बंधी, बंधइ, बंधिस्सइ' इति प्रथमे विकल्पे उपशान्तमोहः१, 'बंधी, बंधइ, न बंधिस्सइ ' इति द्वितीये क्षीणमोहः२, “बंधी, न बंधइ, बंधिस्सइ ' इति तृतीये उपशान्तमोहः३, 'बंधी, न बंधइ, न बंधिस्सइ' इति चतुर्थे शैलेशीगतः४, ‘न बंधी, बंधइ बंधिस्सई' इति पञ्चमे उपशान्तमोहः५, 'न बंधी, बंधइ. न बंधिस्सई' इति षष्ठे क्षीणके चरम समय में जो जीव ऐर्यापथिक कर्म का बंध करता है वह उसके बंध पूर्वक ही करता है अबन्धपूर्वक नहीं करता है अतः जब वह उसे बांधकर उसका बंध करता है तो यह कथन तो द्वितीय भंग में ही आ जाता है-फिर इसके लिये छठे भंगको स्वतंत्र बनानेकी क्या आवश्यकता है । सातवां भंग भव्य विशेष की अपेक्षा से है । और आठवां भंग अभव्य की अपेक्षा से है। भवाकर्ष के जो आठ विकल्प कहे गये हैं-उनमें जो यह (बंधी, वंधइ, बंधिस्सइ) प्रथम विकल्प है वह उप. शान्त मोहवाले जीव की अपेक्षा से है, (बंधी, बंधइ, न बांधिस्सइ) ऐसा जो द्वितीय विकल्प है वह क्षीणमोहवाले जीव की अपेक्षा से है, (बंधी न बंधह, बंधिस्सइ) यह तृतीय विकल्प उपशान्त मोहवाले की अपेक्षासे है, (बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ) यह चतुर्थ विकल्प शैलेशी गत जीवकी अपेक्षा से है, (न बंधी, बंधह, बांधिस्सइ) ऐसा जो यह पांचवां विकल्प है वह उपशान्त मोहवाले जीव की अपेक्षा से है, (बंधी, बंधइ, કારણ કે સગીના ચરમ સમયમાં જે જીવ ઐર્યાપથિક કર્મને બંધ કરે છે, તે તેના બંધપૂર્વક જ કરે છે–અબધપૂર્વક કરતા નથી. તેથી જ્યારે તેને બાંધીને તેને બંધ કરે છે, તે એવું કથન તો બીજા ભંગમાં પણ આવી જાય છે. તો પછી તેને માટે છો સ્વતંત્ર વિકલ્પ બનાવવાની શી જરૂર છે ? સાતમો વિકલ૫ ભવ્યવિશેષની અપેક્ષાએ કહ્યો છે, અને આઠમે વિક૫ અભવ્ય વિશેષની અપેક્ષાએ કહ્યો છે. ભવાકર્ષના જે આઠ વિકલ્પ કહ્યાં છે તેમને "बधी, बधइ, बांधिस्सइ" मा ५। १४६५ 8५शत भावानी अपेक्षा प्रयो छ. “बधी, बंधइ, न बंधिस्सइ" मावा रे भान Qिsey छ त क्षी] भाडा पनी अपेक्षा यो छ, “बधी, न बंधइ, बंधिस्स" આ ત્રીજે જે વિકલ્પ છે તે ઉપશાત–મોહવાળાની અપેક્ષાએ કહ્યો છે, " बंधी, न बधइ, न बांधिस्स इ” । यो वि४६५ शैदेशी अश्यापा सपने मनुसक्षी यो छ. “न बंधी, बधइ, बधिस्सइ " म पांयमा वि६५ ७५शान्त माह ने मनुलक्षीन यो छ. “ब धो, बंधइ, न बघिस्सा"
શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૭