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________________ प्रमेयचन्द्रिका टी० श. ९ ३० ३१ सू० १ अक्षुत्वाधादिलाभनिरूपणम् ६६७ रेणं संवरेज्जा' हे गौतम ! यस्य खलु जीवस्य अध्यवसानावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमः कृतो भवति, स खलु जीवः केवलिनः सकाशाद् वा, यावत् केवलिश्रावकप्रभृतेः सकाशाद् वा संवरोपदेशमश्रुत्वाऽपि केवलेन संवरेण संतृणुयात् । संवरशब्देनात्र शुभाध्यवसायवृत्तेविवक्षिततया, तस्याश्च शुभाध्यवसायवृत्तेर्भावचारित्ररूपत्वेन तदावरणक्षयोपशमलभ्यत्वात् , अध्यवसानावरणीयशब्देनात्र भावचा. रित्रावरणीयानि कर्माणि अवसे यानि इति भावः, 'जस्सणं अज्झवसाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ, से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव णो संवरेज्जा' यस्य खलु जीवस्य अध्यवसानावरणीयानां कर्मणां क्षयोपशमो नो णिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ, से णं असोच्चा केवलिस वा जाव केवलेणं संवरेणं संवरेजा) हे गौतम ! जिस जीव को अध्यवसानावरणीय कर्मो का क्षयोपशम किया हुआ होता है, वह जीव केवली से या यावत् उनके श्रावक आदि से संबर का उपदेश सुने विना भी केवल संवर से आस्रव निरोधरूप संवर कर सकता है । संवर शब्द से यहां पर शुभाध्यवसायवृत्ति विवक्षित हुई है। यह शुभाध्यवसायवृत्ति भावचारित्ररूप होती है। क्यों कि यह भाव चारित्र को आवरण करने वाले कर्मों के क्षयोपशम से लभ्य होती है । अध्यवसानावरणीय शब्द से यहां भावचारित्रावरणीय कर्म गृहीत हुए हैं। (जस्स गं अज्झवसाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ ) तथा जिस जीव को अध्यवसानावरणीय कर्मो का क्षयोपशम किया हुआ नहीं है (से णं असोच्चा केवलिस्स वा जाव णो संवरेजा ) वह जीव केवली से या उनके श्रावक आदि से संवरोपदेश विना सुने केवल संवर नहीं कर केवलेण सवरेण सवरेज्जा ) 2 मध्यवसाना१२:य भाना क्षयोपशम થયો હોય છે, તે જીવ કેવલી પાસે અથવા તેમના શ્રાવક વગેરેની પાસે સંવરને ઉપદેશ સાંભળ્યા વિના પણ કેવલ સંવરદ્વારા આસને નિરોધ કરી શકે છે. સંવર શબ્દનો પ્રયોગ દ્વારા અહીં શુભાધ્યવસાયવૃત્તિ ગ્રહણ કરાછે. તે શુભાધ્યવસાયવૃત્તિ ભાવચારિત્રરૂપ હોય છે, કારણ કે તે ભાવચારિત્રને भा१२५ ४२॥२॥ ना या५मथी पास थाय छ, ५२न्तु “ जस्सण अज्झवसागावरणिजाणं कम्नाणं खओवसमे णो कडे भवइ, से णं अस्रोच्चा केवलिस्स वा जाव णो संवरेज्जा) रेलवे मध्यसाना१२०॥य ४ाना क्षयोपशम કર્યો હતેા નથી, તે જીવ કેવલી અથવા તેમના પક્ષની ઉપાસિકા પર્યન્તની શ્રી ભગવતી સૂત્ર : ૭
SR No.006321
Book TitleAgam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 07 Sthanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhasilal Maharaj
PublisherA B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
Publication Year1964
Total Pages776
LanguageSanskrit, Hindi, Gujarati
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_bhagwati
File Size45 MB
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